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द्वितीय खण्ड
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ताकि एक भाग दूसरे से अलग हो जाय, उसी प्रकार गुणस्थानों की भी बात है । एक गुणस्थान के साथ दूसरे गुणस्थान की सीमा इस प्रकार संयुक्त है कि वह एक प्रवाह जैसा बन गया है । ऐसा होने पर भी वर्णन की सुविधा के लिये गुणस्थान चौदह भागों में विभक्त किये गए हैं। दिशा का निर्देश इसी प्रकार किया जा सकता है ।
इन चौदह गुणश्रेणियों के नाम इस प्रकार हैं—
(१) मिथ्यादृष्टि, (२) सास्वादन, (३) मिश्र, (४) अविरतिसम्यग्दृष्टि, (५) देशविरति, (६) प्रमत्त, (७) अप्रमत्त, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मसम्पराय, (११) उपशान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगिकेवली और (१४) अयोगिकेवली ।
(१) मिथ्यात्व गुणस्थान - प्राणी में जब आत्मकल्याण के साधनमार्ग की सच्ची दृष्टि न हो, उलटी ही समझ हो अथवा अज्ञान किंवा भ्रम हो तब वह इस श्रेणी में विद्यमान होता है । छोटे-छोटे कीड़ों से लेकर बड़े-बड़े पण्डित, तपस्वी और राजा-महाराजा आदि तक भी इस श्रेणी में हो सकते हैं; क्योंकि वास्तविक आत्मदृष्टि अथवा आत्मभावना का न होना ही मिथ्यात्व है, जिसके होने पर उनकी दूसरी उन्नति का कुछ भी मूल्य नहीं होता ।
सत्पुरुष को असत्पुरुष और असत्पुरुष को सत्पुरुष, कल्याण को अकल्याण और अकल्याण को कल्याण, सन्मार्ग को उन्मार्ग और उन्मार्ग को सन्मार्ग — ऐसी औंधी समझ तथा झूठे रीतरस्म और अंधविश्वासों को मानना भी मिथ्यात्व है । संक्षेप में, आत्मकल्याण के साधन मार्ग में कर्तव्यअकर्तव्यविषयक विवेक का अभाव 'मिथ्यात्व' है ।
श्री हरिभद्राचार्य ने अपने 'योगदृष्टिसमुच्चय' नामक ग्रन्थ में मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा इन योग की आठ दृष्टिओं का निरूपण किया है । इनमें से पहली मैत्रीलक्षणा 'मित्रा' दृष्टि है जिसमें चित्त की मृदुता, अद्वेषवृत्ति, अनुकम्पा और कल्याणसाधन की स्पृहा जैसे प्राथमिक सद्गुण प्रकट होते हैं । आचार्य महाराज कहते हैं कि इस दृष्टि की उपलब्धि होने में ही प्रथम गुणस्थान की प्राप्ति होती है । इस प्रकार प्रथम
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