________________
६६
जैनदर्शन पर पहुँच जाता है और तत्क्षणात् तेरहवीं श्रेणी में आकर केवलज्ञानी होता है ।
यद्यपि यह विषय सूक्ष्म है तथापि उसे समझने में ध्यान दिया जाय तो अवश्य रोचक प्रतीत होगा । यह आत्मा की उत्क्रान्ति की विवेचना है । मोक्षरूपी प्रासाद पर पहुँचने के लिये यह चौदह सोपान वाली सीढी है । पहले सोपान से जीव चढने लगते हैं, कोई आहिस्ते से तो कोई जल्दी से
और यथाशक्ति आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं । कोई चढ़ते-चढ़ते ध्यान न रखने के कारण नीचे गिर जाते हैं । और गिरते गिरते पहले सोपान पर भी जा गिरते हैं । ग्यारहवें सोपान तक पहुँचे हुए जीव को भी मोह का धक्का लगने से नीचे गिरना पड़ता है । इसीलिये ऊपर चढनेवाले जीव तनिक भी प्रमाद न करें इस बात की बार-बार चेतावनी आध्यात्मिक-शास्त्रों ने दी है। बारहवें सोपान पर पहुँचने के बाद गिरने का किसी प्रकार का भय नहीं रहता । आठवें-नवें सोपान पर मोह का क्षय प्रारम्भ हुआ कि फिर गिरने का भय सर्वथा दूर हो जाता है ।
[ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुँचे हुए जीव को भी नीचे गिरना पड़ता है इसका कारण यह है कि उसने मोह का क्षय नहीं किन्तु उपशम किया होता है। परन्तु आठवें-नवें गुणस्थान में मोह के उपशम के बदले क्षय की प्रक्रिया यदि शुरू हो जाय तो फिर नीचे गिरना असम्भव हो जाता है ।]
'गुणस्थान' शब्द में आए हुए 'गुण' शब्द का अर्थ आत्मविकास का अंश ऐसा होता है" । जैसे-जैसे आत्मविकास के अंश बढ़ते जाते हैं वैसे वैसे गुणस्थानों का उत्कर्ष माना गया है । यों तो गुणस्थान असंख्यात हैं, क्योंकि आत्मा की इस प्रकार की जितनी परिणतियाँ है । उतने उसके गुणस्थान है । जिस प्रकार नदी के प्रवाह को कोस, मील आदि कल्पित नाम से विभक्त करने पर भी उससे प्रवाह में न तो कोई अमिट रेखा ही बन जाती है और न उस प्रवाह में किसी प्रकार का विच्छेद ही पड़ता है ।
१. उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्याय में भगवान् महावीर ने गौतम को सम्बोधन करके
उनके मिस से सब जीवों को 'समय गोयम ! मा पमायए' (गौतम ! एक समय का भी प्रमाद न कर) इस प्रकार का सुन्दर उपदेश दिया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org