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________________ द्वितीय खण्ड से ही उत्पन्न होते हैं । अवधिज्ञान की अवधि एक प्रकार की नहीं, असंख्येय प्रकार की है । अवधिज्ञान अपनी अवधि में आए हुए रूपी पदार्थों का, फिर वे चाहें आवृत हों या दूर हों, साक्षात्कार करता है । मन:पर्याय ज्ञान दूसरों के मन का (मनोद्रव्य का ) स्पष्ट प्रत्यक्ष करता है । दूसरा मनुष्य क्या सोच रहा है यह मन:पर्यायज्ञान जान सकता है । 'केवलज्ञान' पूर्ण ज्ञान है । कैवल्य की भूमिका पर पहुँचने के लिये वहाँ किस प्रकार पहुँचा जा सकता है यह हमें समझना चाहिए । यह आरोहण आत्मा का क्रमिक विकास है । यह गुणस्थान का विषय है। अतः उस ओर भी तनिक दृष्टिपात कर लें । गुणश्रेणी अथवा गुणस्थान : जैन शास्रों में चौदह श्रेणियाँ बतलाई हैं । ये श्रेणियाँ गुणस्थान की हैं । गुणस्थान अर्थात् गुण की अवस्था । आत्मा के गुणों का विकास यथायोग्य क्रमशः चौदह श्रेणियों में होता है । पहली श्रेणी के जीवों की अपेक्षया दूसरी-तीसरी श्रेणी के जीव आत्मगुण के सम्पादन में आगे बढ़े हुए होते हैं और उनकी अपेक्षया चौथी श्रेणी के जीव अधिक उन्नत अवस्था पर होते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर श्रेणी के जीव पूर्व-पूर्व श्रेणी के जीवों की अपेक्षया अधिक उन्नत पर पहुँचे हुए होते हैं-एक अपवाद के सिवाय । सब प्राणी प्रथम (प्राथमिक अवस्था में) तो पहली श्रेणी में ही होते हैं परन्तु उनमें से आत्मबल का विकास करके जो आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं वे उत्तरोत्तर श्रेणियों में से योग्य क्रम से गुजरने के बाद बारहवीं श्रेणी में निरावरण बनकर तेरहवीं श्रेणी में जीवन्मुक्त परमात्मा बनते हैं और मृत्यु के समय चौदहवीं श्रेणी में आकर तुरन्त ही परम निर्वाणधाम में पहुँच जाते हैं । मन्द प्रयत्नवालों को बीच की श्रेणियों में अधिक रुकना पड़ता है, अनेक बार चढ़ना उतरना पड़ता है, जिससे बारहवीं श्रेणी पर अथवा उस श्रेणी की ओर जानेवाले मार्ग पर पहुँचने में उन्हें अधिक समय लगता है। कोई प्रबल पुरुषार्थी महान् साधक तीव्र वेग से काम लेते हुए बीच की श्रेणियों में अधिक समय न रुक कर शीघ्र ही बारहवीं श्रेणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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