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________________ ७५ द्वितीय खण्ड अर्थात् मर्यादित विरति । (६) प्रमत्तगुणस्थान--महाव्रतधारी साधुजीवन का यह गुणस्थान है। परन्तु यहाँ सर्वविरति होने पर भी प्रमादभाव रहता है । कभी-कभी कर्तव्यकार्य उपस्थित होने पर भी आलस्य आदि के कारण जो अनादर बुद्धि उत्पन्न होती वह प्रमाद है। परन्तु जिस प्रकार उचित मात्रा में उचित भोजन लेना प्रमाद में नहीं गिना जाता तथा उचित निद्रा लेने से उसकी गणना प्रमाद में नहीं होती, उसी प्रकार कषाय यदि मन्द हो तो उसकी गणना यहाँ पर प्रमाद में नहीं की गई है । कषाय जब तीव्र रूप धारण करें तभी उन्हें यहाँ प्रमादरूप से गिना गया है । क्योंकि वैसे तो कषायोदय अगले सातवें गुणस्थानों से उत्तरोत्तर मन्द ही होता जाता है, इसलिये वह प्रमाद नहीं कहा जाता । (७) अप्रमत्तगुणस्थान-प्रमादरहित मुनिवर का यह सातवाँ गुणस्थान है । संयमी मनुष्य बहुत बार प्रमत्त एवं अप्रमत्त अवस्था में झूलता रहता है । कर्तव्य में उत्साह और सावधानी कायम बनी रहे यह अप्रमत्त अवस्था है । इस अवस्था से चलित होने पर थोडे समय में पुनः प्रमत्तता आ जाती है । (८) अपूर्वकरण'— चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय करने का अपूर्व (इससे पहले अनुपलब्ध ) अध्यवसाय (आत्मिक उत्थानकाल का विशिष्ट भावोत्कर्ष) इस गुणस्थान में प्राप्त होता है । चारित्रमोहनीय का उपशम अथवा क्षय यहाँ से (यहाँ की सबल भूमिका पर अवस्थित अगले गुणस्थान से) प्रारम्भ होता है। (९) अनिवृत्तिकरण--अपूर्व प्रकार का यह भावोत्कर्ष आगे के आत्मोत्कर्ष के लिये साधकतम होता है । ये दोनों-आठवाँ और नवाँ गुणस्थान आत्मिकभाव की निर्मलता की तरतम अवस्था के निर्देशरूप है । १. 'करण अर्थात् अध्यवसाय-आत्मपरिणाम अथवा क्रिया । २. प्रथम गुणस्थान में प्रवर्तमान 'अपूर्वकरण' और 'अनिवृत्तिकरण' सम्यक्त्व के साथ सम्बन्ध रखते हैं और गुणस्थानरूप ये 'अपूर्वकरण' और 'अनिवृत्तिकरण' उत्कृष्ट चारित्र के साथ सम्बन्ध रखते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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