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जैनदर्शन (१०) सूक्ष्मसम्पराय'-मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय होतेहोते जब सम्पूर्ण (सपरिवार-क्रोधादि-कषायरूप) मोहनीय कर्म उपशान्त अथवा क्षीण हो जाता है और सिर्फ एकमात्र लोभ का सूक्ष्म अंश अवशिष्ट रहता है तब उस स्थिति के गुणस्थान का नाम सूक्ष्मसम्पराय है ।
(११) उपशान्तमोह—जिसने कषायरूप चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम ही (क्षय नहीं) करना शुरू किया है उसके सम्पूर्ण मोह का उपशम होना 'उपशान्तमोह' गुणस्थान है।
(१२) क्षीणमोह—जिसने कषायरूप चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करना शुरु किया है उसके सम्पूर्ण मोह के क्षीण हो जाने का नाम 'क्षीणमोह' गुणस्थान है। ऊपर का ग्याहरवाँ और यह-~-दोनों पूर्ण समभाव के गुणस्थान हैं । फिर भी इन दोनों में फर्क है और वह यह कि उपशान्त-मोह के आत्मभाव की अपेक्षा क्षीणमोह का आत्मभाव अत्यन्त उत्कृष्ट होता है । इसी कारण उपशान्त-मोह का समभाव स्थायी रहने नहीं पाता, जबकि क्षीणमोह का समभाव पूर्णतया स्थायी होता है ।
यहाँ पर उपशम एवं क्षय का भेद समझना उचित होगा । सामान्यतः इनका भेद इस प्रकार समझाया जाता है कि पानी डालकर आग बुझा देने का नाम 'क्षय' है और राख डालकर उसे ढंक देने का नाम 'उपशम' है । भले ही मोह का सम्पूर्ण उपशम हुआ हो, परन्तु उसका पुनः प्रादुर्भाव हुए बिना नहीं रहता । जिस प्रकार पानी में का कचरा नीचे बैठ जाने पर पानी स्वच्छ दिखता है उसी प्रकार मोह के रज-कण-मोह का सम्पूर्ण पुंज उदय में आने से रुक कर आत्म-प्रदेश में जब अन्तर्निगूढरूप से सर्वथा स्थिर हो जाता है तब आत्म-प्रदेशों स्वच्छ से बन जाते हैं । परन्तु यह स्वच्छता कितने समय की ? पानी के नीचे बैठा हुआ कचरा तनिक हलन-चलन से जिस प्रकार पानी में फैल जाता है उसी प्रकार उपशान्त हुआ मोहपंज थोडी देर में ही पुनः उदय में आता है, जिसके फलस्वरूप जैसे गुण श्रेणियों चढ़ना हुआ था वैसे ही नीचे गिरना पड़ता है । मोहशमन के साधक को पुनः गिरना ही
१. 'सम्पराय' अर्थात् कषाय । यहाँ पर लोभ समझना ।
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