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जैनदर्शन
और इसीलिये विनाशी सिद्ध होगी । इसके अतिरिक्त आत्मा के अभाव में 'कर्म' वस्तु ही नहीं घट सकती । इस प्रकार जब ये दोनों पक्ष घट नहीं सकते तब आत्मा और कर्म ये दोनों हमेशा से साथ ही हैं, अर्थात् इन दोनों का अनादि सम्बन्ध है—यही तीसरा पक्ष है अर्थात् सिद्ध होता है ।
जैन शास्त्रों में कर्म के मुख्य आठ भेद कहे गए हैं--१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय । आत्मा वस्तुतः परमज्योतिः स्वरूप, शुद्ध सच्चिदानन्दमय है, परन्तु उपर्युक्त कर्मों के आवरण से उसका मूलस्वरूप आच्छादित है । इसी कारण वह संसार में परिभ्रमण करती है, और इसी कारण भवचक्र की अनेकानेक विडम्बनाएँ उसे लगी हुई हैं ।
अब हम आठ कर्मों का स्वरूप संक्षेप में देखें ।
१. ज्ञानावरण कर्म आत्मा की ज्ञानशक्ति को आच्छादित करता है । जैसे-जैसे इस कर्म का जोर बढ़ता जाता है वैसे-वैसे यह ज्ञानशक्ति को अधिकाधिक दबाता है । बुद्धि का अधिकाधिक विकास होने का मुख्य कारण इस कर्म का शिथिल होना है। विश्व में दृश्यमान बौद्धिक विभिन्नता का कारण इस कर्म की भिन्न-भिन्न अवस्था है । इस कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने पर केवलज्ञान (पूर्ण प्रत्यक्षज्ञान) प्रकट होता है ।
२. दर्शनावरण कर्म दर्शनशक्ति को आवृत करता है । ज्ञान और दर्शन में विशेष भेद नहीं है। प्रारम्भ में होने वाले सामान्य आकार के ज्ञान को 'दर्शन' कहते हैं। किसी मनुष्य या वस्तु के दृष्टिगोचर होने पर पहले उसका सामान्य प्रकार से जो भान होता है वह दर्शन है और पीछे उसका विशेष प्रकार से बोध होना वह ज्ञान है । निद्रा, अन्धत्व, बधिरत्व आदि इस कर्म के फल हैं ।
३. वेदनीय कर्म का कार्य सुख-दुःख का अनुभव करवाना है । सुख का अनुभव करवानेवाले को सातावेदनीय और दुःख का अनुभव करवानेवाले को असातावेदनीय कर्म कहते हैं ।
४. मोहनीय कर्म मोह उत्पन्न करता है । स्त्री पर मोह, पुत्र पर मोह,
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