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प्रथम खण्ड
मित्र पर मोह, अच्छी-अच्छी लगनेवाली वस्तुओं पर मोह — यह सब मोहनीय कर्म का परिणाम है । मोह में अन्ध व्यक्ति को कर्तव्य - अकर्तव्य का भान नहीं रहता । जिस प्रकार एक शराबी वस्तु को वास्तविक रूप में समझ नहीं सकता और उन्मत्त होकर उत्पथगामी बनता है उसी प्रकार मोहान्ध जीव तत्त्व को तत्त्वदृष्टि से समझ नहीं सकता और अज्ञान तथा झूठी समझ में गोतें लगाता रहता है । मोह की लीला अपार है । उसके चित्र-विचित्र अनन्त उदाहरण संसार में सर्वत्र दिखाई देते हैं । आठों कर्मों में यह कर्म आत्मस्वरूप को हानि पहुँचाने में सबसे अधिक और मुख्य हिस्सा रखता है । इस कर्म के दो भेद हैं
(१) तत्त्वदृष्टि को आवृत्त करनेवाला 'दर्शनमोहनीय' और
(२) चारित्र का अवरोधक 'चारित्रमोहनीय' ।
५. आयुष्य कर्म के चार भेद हैं- (१) देवता का आयुष्य, (२) मनुष्य का आयुष्य, (३) तिर्यंच का आयुष्य और (४) नारक जीवों का आयुष्य । जिस प्रकार पैरों में जंजीर पड़ी हो तब तक मनुष्य बन्धन से छूट नहीं सकता उसी प्रकार देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक इन चार गतियों के जीव जब तक आयुष्य पूर्ण न हो तब तक वहाँ से छूट नहीं सकते ।
६. नाम कर्म के अनेक भेद - प्रभेद हैं परन्तु संक्षेप में अच्छा या बुरा शरीर, अच्छा या बुरा रूप, सुस्वर अथवा दुःस्वर, यश अथवा अपयश आदि अनेक बातें इस कर्म पर अवलम्बित हैं । भिन्न-भिन्न एकेन्द्रियादि जाति और मनुष्यादि गति आदि नामकर्म के विपाक हैं । जिस प्रकार एक चित्रकार भिन्नभिन्न प्रकार के अच्छे-बुरे चित्र बनाता है उसी प्रकार प्राणियों के विविध देहाकारों, रूपाकारों तथा रचनाकारों का निर्माण करनेवाला यह कर्म है । शुभ नामकर्म के उदय से शरीर आदि अच्छे मिलते हैं और अशुभ नामकर्म के उदय से खराब ।
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७. गोत्र कर्म के दो भेद हैं— उच्च गोत्र और नीच गोत्र । प्रशस्त अथवा गर्हित स्थान में, संस्कारी अथवा असंस्कारी कुटुम्ब में जन्म होना इस कर्म का परिणाम है ।
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