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________________ जैनदर्शन ८. अन्तराय कर्म का कार्य विघ्न उपस्थित करने का है । सुविधा हो और धर्म की सूझ भी हो फिर भी मनुष्य दान न दे सके-यह इस कर्म का असर है । वैराग्य अथवा त्यागवृत्ति न होने पर भी मनुष्य अपने धन का उपभोग न कर सके-यह इस कर्म का प्रभाव है । अनेक प्रकार के बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करने पर भी व्यापार-रोजगार में सफलता न मिले अथवा हानि उठानी पड़े-यह इस कर्म का कार्य है । शरीर पुष्ट होने पर भी कोई उद्यमशील न हो यह इस कर्म का परिणाम है । इस प्रकार कर्मविषयक यह संक्षिप्त वर्णन हुआ । जिस प्रकार के अध्यवसाय होते हैं, कर्म भी उसी प्रकार के चिकने बँधते हैं और फल भी वैसा ही भोगना पड़ता है। कर्म के बन्ध के समय ही उसकी स्थिति अर्थात् कर्म कितने समय तक जीव के साथ बद्ध रहेगा-यह कालमर्यादा भी निश्चित हो जाती है। कर्म का बन्ध होने के बाद तुरंत ही वह उदय में आता है ऐसा नहीं समझना । जिस प्रकार बीज बोने के बाद तुरंत ही उसका फल नहीं मिलता उसी प्रकार कर्म बँधने के पश्चात् अमुक समय व्यतीत होने पर ही उदय में आता है । उदय में आने के बाद भी इसका कोई नियम नहीं है कि कर्म कब तक भोगना पड़ेगा, क्योंकि पहले (कर्मबन्ध के समय) बँधे हुए स्थिति-काल में भी आत्मपरिणाम के अनुसार परिवर्तन हो सकता है । कर्म का बन्धन एक ही प्रकार का नहीं होता । कोई कर्म गाढ बाँधता है तो कोई अतिगाढ, कोई मध्यम प्रकार का तो कोई शिथिल प्रकार का । जिन कर्मों का बन्ध अतिगाढ होता है उन्हें जैन शास्त्रों में 'निकाचित कर्म' कहते हैं । इस दर्जे का कर्म प्रायः अवश्य भोगना पड़ता है। दूसरे कर्म भावना एवं साधना के पर्याप्त बल से बिना भोगे भी छूट सकते हैं । यहाँ पर हम 'आस्रव' से उत्पन्न 'बन्ध के बारे में कुछ अधिक स्पष्ट और विस्तार से विचार करें । पुद्गल की वर्गणाएँ (समूह) अनेक हैं। उनमें से जिस वर्गणा में कर्मरूप में परिणत होने की योग्यता होती है उसी को ग्रहण करके जीव उसे अपने सम्पूर्ण प्रदेशों के साथ विशिष्टरूप से मिला लेता है । अर्थात् जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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