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________________ द्वितीय खण्ड ये तथा ऐसी अन्य विशेषताएँ धर्म की स्वाख्यातता हैं । हमें यह समझना चाहिये कि धार्मिक संकुचितता और झुठे अहंकार से धार्मिक सत्य का अपमान होता है तथा एक दूसरे की तरफ अभाव अनादर, द्वेष और धिक्कार की कलुषित वृत्तियाँ जमने और बढ़ने लगती हैं। जिससे सब प्राणियों का कल्याण सिद्ध हो सकता है ऐसे सर्वगुण-सम्पन्न धर्म का उपदेश सत्पुरुषों ने दिया है वह कितना बड़ा सद्भाग्य है-ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्व भावना है । भावनाका दूसरा नाम अनुप्रेक्षा है जिसका अर्थ होता है गहन चिन्तन । यदि चिन्तन तात्त्विक और गहरा हो तो उससे राग-द्वेष की वृत्ति उत्पन्न होने से रुक जाती है । अतएव ऐसे चिन्तन का संवर के (कर्मबन्धनिरोध के) उपायरूप से उल्लेख किया गया है । बन्ध-मोक्ष : 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः' (मैत्र्युपनिषद) यह सुप्रसिद्ध वचन सूचित करता है कि मन ही बन्ध और मोक्ष का कारण है । और यह बात है भी सत्य । इसका तात्पर्य यही है कि मन की शुभ वृत्ति से शुभ कर्म और अशुभ वृत्ति से अशुभ कर्म का बन्ध होता है । परन्तु यदि क्रिया प्रवृत्ति के पीछे मन की वीतराग स्थिति अथवा विशुद्ध निष्कषाय वात्सल्यभाव हो तो ऐसे श्रेष्ठ शुद्ध शुभ्र मन से कर्मबन्ध नहीं होता, अपितु पराकाष्ठा पर पहुँची हुई मन की शुद्धता से मोक्ष प्रकट होता है । इसीलिये उपर्युक्त श्लोकार्ध में मन को मोक्ष का कारण कहा है। १. समग्र भावनाओं का साररूप उद्गार मनो वचो मे चरितं च सन्ततं पवित्रतावाहि यदा भविष्यति । तदा भविष्यामि यथार्थमुन्नतः कृतार्थजन्मा परमप्रसादभाक् ॥ -लेखक अर्थात्-जब मेरे मन, वचन और आचरण निरन्तर पवित्रता के धारक बन जाएँगे तभी मेरी सच्ची उन्नति होगी, तभी मेरा जन्म कृतार्थ होगा और तभी मैं अखण्ड प्रसाद का अनुभव करूँगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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