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________________ ९२ जैनदर्शन इस पर से ज्ञात हो सका है कि क्रिया-प्रवृत्ति होने से ही कर्म का बन्ध हो जाता है ऐसा एकान्त नियम समझ लेने का नहीं है । क्रिया-प्रवृत्ति यदि रागद्वेषरहित हो तो वह कर्मबन्धक नहीं होती । केवली भगवान् सांसारिक मनुष्य की भाँति ही चलते फिरते हैं, बोलते हैं तथा अन्यान्य प्रवृत्ति करते हैं फिर भी उन्हें [सातावेदनीय कर्म के क्षणिक मात्र बन्ध की गिनती न होने से] कर्मबन्ध नहीं होता; क्योंकि वे वीतराग हैं । जो सच्चा वीतराग होता है वह विश्ववत्सल होता है, जगन्मित्र होता है, सब प्राणियों की ओर उसका वीतराग वात्सल्य बहता ही रहता है । केवली ऐसे ही होते हैं । वे निष्क्रिय नहीं होते, किन्तु उज्ज्वलप्रवृत्तिपरायण होते हैं । विश्वहित की उनकी प्रवृत्ति वीतरागभाव से युक्त (निष्कषाय वात्सल्यभाव से युक्त) होने से कर्मबन्धक नहीं होती। ___ यह बात सही है कि अनासक्त किंवा वीतरागभाव से विशुद्ध वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर कार्य करना बहुत ऊँची स्थिति है और यह भी सच है कि साधारण विकास तक पहुँचे हुए मनुष्यों को यह भूमिका दुर्गम प्रतीत हो, फिर भी इस दुर्गम आदर्श को सुगम करने की दिशा में आहिस्ता आहिस्ता भी प्रयत्न तो करना ही रहा ।। शुभ कर्मबन्ध के पीछे जो शुभ वृत्ति-प्रवृत्ति होती है उसमें राग होता ही है और राग के प्रतिपक्षी द्वेष की भी प्रायः (दूसरे पक्ष में) सम्भावना है । राग का आवरण जहाँ होता है वहाँ स्वार्थ, पक्षपात, दूसरे की हित की ओर उपेक्षाभाव-ऐसा कूडा-करकट थोडा-बहुत प्रायः लगा होता है । अतः वह स्थिति कर्मबन्धक होती है और अपने स्वभाव के अनुसार होती है । ऐसा होने पर भी ध्यान में रखना चाहिए कि स्वपरहित के सत्कार्य करने के पीछे यदि शुभयोगरूप शुभ आस्रव हो तो वह भी आत्मा के लिये हितावह है । सत्कर्मों से बँधनेवाला सत्पुण्यरूप कर्म कल्याण के साधन जुटानेवाला होने से उसे प्रशस्त कोटि का, प्रशंसास्पद समझना चाहिए । सुयोग शरीरादि साधन और श्रेय साधक सत्संग जैसे शुभ संयोग प्राप्त करानेवाला [सत्पुण्यरुप] कर्म कितना महत्त्वशाली होगा? 'तीर्थंकर नाम कर्म जैसा महान और उच्चतम कोटि का कर्म आत्मा के जिस आस्रवरूप परिणाम से बँधता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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