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द्वितीय खण्ड है वह क्या कर्म स्तुतिपात्र होगा ? समग्र संसारी जीवनयात्रा में यद्यपि कर्मबन्ध के व्यापार और कर्मबन्ध का क्रम तो चालू ही रहता है फिर भी कम से कम इतना ख्याल तो विवेकी को अवश्य रखना चाहिए कि कलुषित अथवा पापरूपकर्म का बन्ध न हो । बाकी, सत्कर्म द्वारा सत्पुण्य का बन्ध हो तो उससे डरने या घबराने की आवश्यकता नहीं ।
सामान्यतः लोग ऐसा समझ बैठे हैं कि अमुक कार्य न करने से, प्रवृत्तिमात्र का त्याग कर देने से हमें पुण्य-पाप की छूत नहीं लगेगी। उनका ऐसा ख्याल होता है कि शुभ (हितकारक) कार्य करने से पुण्य-कर्म का बन्ध होता है और यह बन्ध सोने की शृंखला जैसा है, और इसी प्रकार अशुभ (अहितकर) कार्य करने से पापकर्म बँधता है और यह लोहे की शृंखला जैसा है : अर्थात् शुभ या अशुभ कार्य करने से कर्मबन्ध तो होता ही है और आत्मा की मुक्ति तो कर्मरूपी जंजीर के बन्धन से मुक्त होने पर होती है, इसके सिवाय नहीं । इस प्रकार के ख्याल से वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जरूरी प्रवृत्तियों के अतिरिक्त दूसरी सब प्रवृत्तियाँ छोड़ देते हैं और अकर्मण्य बन कर मोक्ष की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं परन्तु आलस्यमय
१. श्री यशोविजयजी उपाध्याय प्रथम द्वात्रिंशिका के १७वें श्लोक में कहते हैं
नैवं यत् पुण्यबन्धोऽपि धर्महेतुः शुभोदयः ।
वह्निर्दाह्यं विनाश्येव नश्वरत्वात् स्वतो मतः ॥ अर्थात्-पुण्यबन्ध (शुभ पुण्यबन्ध) भी शुभ उदयवाला और धर्म का कारण है । यह मुक्ति या निर्जरा का विरोधी नहीं है। जिस तरह आग ईंधनादि को जलाकर स्वयं शान्त हो जाती है उसी तरह शुभ पुण्य पाप का नाश करके स्वयमेव क्षीण हो जाता है ।
इसी द्वात्रिंशिका के २२वें श्लोक की टीका में वे कहते हैं कि शुभ पुण्य मोक्षमार्ग-विहार में बाधक नहीं होता । अतएव ऐसे पुण्य से मुक्ति की सुलभता होती है ऐसा समझना चाहिए ।
पुण्यात्मा शुभ पुण्य के उदय से प्राप्त भोगों में आसक्त नहीं होता किन्तु वह स्वस्थ रहता है, धर्मविहारी रहता है, राजयोगी बना रहता है और वह पवित्रबुद्धि जाग्रत मुमुक्षु अवसर आने पर मोक्षसाधन के महान् मार्ग पर चढ़ जाता है तथा उत्तरोत्तर प्रगति करता है ।
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