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________________ ९४ जैनदर्शन जीवन शैतान के प्रवेश के लिये दरवाजे खोल देता है । प्रत्येक मनुष्य कुछन-कुछ प्रवृत्ति अवश्य करता है । कर्म किए बिना उससे रहा ही नहीं जा सकता । किसी समय बाह्य रूप से भले ही वह निष्क्रिय सा दीखे फिर भी उसका मन तो अपना कार्य करता ही रहता है । चञ्चल मन का यह स्वभाव ही है । अतः कर्म मात्र से छुटकारा ले लेने का बाह्य दिखावा केवल दम्भ ही बन जाता है । अशुभ प्रवृत्ति तो छोड़ ही देने की है, परन्तु ऐसा कब हो सकता है ? जब मन को शुभ प्रवृत्ति में रोका जाय तब । जिस प्रकार पैर में चभे हए काँटे को निकालने के लिये हम सूई का उपयोग करते हैं उसी प्रकार अशुभ प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने के लिये शुभ प्रवृत्तियों का आश्रय लेने की आवश्यकता है । काँटा निकालने के बाद काँटे को तो फेंक देते हैं परन्तु सुई को भविष्य के उपयोग के लिये सँभालकर रख देते हैं उसी प्रकार अशुभ प्रवृत्ति की ओर मन की वृत्ति जब तक सर्वथा नष्ट न हो तब तक शुभ प्रवृत्तियाँ त्याज्य नहीं होती ।। शुभ प्रवृत्ति के बन्धन से छुटकारा पाने के लिये उसका त्याग करने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि वैसी प्रवृत्ति के पीछे रहे हुए आशय को शुभ में से शुद्ध रूप में परिणत किया जाय । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन कार्य है परन्तु मुक्ति जैसी दुष्प्राप्य वस्तु प्राप्त करने के लिये उसका मार्ग भी कठिन ही होगा । प्रस्तुत में कहने का अभिप्राय यह है कि प्रवृत्ति छोड़ने से नहीं छूटती । जब उसकी आवश्यकता नहीं रहती तब वह स्वतः स्वाभाविकरूप से ही छूट जाती है । परन्तु जब तक जीवनप्रवाह स्वभावतः प्रवृत्तिगामी है तब तक मनुष्य को असत्प्रवृत्ति का त्याग करके सत्प्रवृत्तिशील बनना चाहिए । असमय में किए हुए प्रवृत्तित्याग में कर्तव्यपालन के स्वाभाविक एवं सुसंगत मार्ग से मनुष्य च्युत हो जाता है । उसमें विकास-साधन की अनुकूलता नहीं है, जीवन की विडम्बना मात्र है। एक प्रवृत्ति में से दूसरी प्रवृत्ति में चले जाना भी प्रायः निवृत्ति का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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