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द्वितीय खण्ड
काम करता है । इस प्रकार की प्रवृत्तिधारा जीवन को आनन्दमय स्थिति में रख सकती है।
अलबत्ता, प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति का क्षेत्र अपनी-अपनी योग्यता एवं रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। किन्तु यह स्पष्ट ही है कि मानसिक या बौद्धिक कार्यकर्ता के लिए भी समुचित शारीरिक श्रम उसके जीवन के उल्लास के लिये अपेक्षित ही है ।
मुक्ति अथवा कल्याण का मार्ग एकान्त निवृत्ति अथवा एकान्त प्रवृत्ति नहीं है । निवृत्ति उसका योग्य समय आने पर स्वत: उपास्य बन जाती है । प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों परस्पर एक-दूसरे के साथ संगत होकर जीवन में रहें तभी सच्चे जीवन का विकास हो सकता है । सकता है । निवृत्ति-प्रवृत्ति में चैतन्य लाने के लिये है। जिस प्रकार एक प्रवासी विश्राम लेने के लिये किसी स्थान पर बैठता है और आराम लेने के पश्चात् पुन: चल पड़ता है उसी प्रकार विश्रान्तिरूप योग्य निवृत्ति का अवलम्बन प्रवृत्ति को सतेज और प्राणमय बनाने के लिये है । अथवा जिस प्रकार ऊँचा मकान बनाने के लिये नींव गहरी डालनी पड़ती है उसी प्रकार ऊँची प्रवृत्ति की साधना के लिये निवृत्ति लेनी पड़ती है । इस प्रकार समुचित निवृत्ति द्वारा पोषित और संवर्धित विवेव प्रवृत्ति, सत्कर्मशीलता, स्व-परहितकर कार्यपरायणता अथवा अनासक्त कर्मयोग स्थायी, स्वस्थ एवं मधुर आनन्द का झरना बन जाता है । ऐसा झरना चाहे जैसी उन्नत कल्पना के आधार पर खडी की गई निवृत्ति [निरुद्देश और अकर्मण्यतारूप निवृत्ति] नहीं बन सकती ।
पहले कहा जा चुका है कि अहिंसा का अर्थ हिंसा न करना, पापाचरण न करना ऐसा केवल निषेधात्मक (निवृत्तिररूप) नहीं है, परन्तु प्राणीदया, भूतवात्सल्य, परोपकारिता और सदाचरणरूप विधेयात्मक (प्रवृत्तिरूप) भी उसका अर्थ है । जिस प्रकार एक ढाल के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार धर्म के दो पहलू हैं : एक प्रवृत्ति और दूसरी निवृत्ति-अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति । इस तरह धर्म प्रवृत्ति-निवृत्ति-उभयात्मक है ।
हमें यह जानना चाहिए कि चारित्र के दो अंग है : जीवन में रहे
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