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जैनदर्शन
हुए अथवा आनेवाले दोषों को दूर करना यह पहला अंग है । दूसरा अंग आत्मा के सद्गुणों का उत्कर्ष करना है । इन दोनों अंगों के लिये किये जानेवाले सम्यक् पुरुषार्थ में ही वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन की कृतार्थता है। ये दोनों अंग एक-दूसरे के साथ इस तरह से संयुक्त हैं कि पहले के बिना दूसरा शक्य ही नहीं है और दूसरे के बिना पहला ध्येयशून्य हो जाने के कारण निरर्थक जैसा लगता है । अतः प्रथम अंग में ही चारित्र की पूर्णता न मानकर उसके उत्तरार्ध अथवा उसके साध्यरूप दूसरे अंग का भी विकास करना चाहिए ।
इस प्रकार प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों के समुचित साहचर्य में ही अभ्युदय तथा निःश्रेयस की सिद्धि है । जैन-जैनेतर दृष्टि से आत्मा :
अध्यात्म का विषय आत्मा का विषय है, अतः उसमें आत्मस्वरूप की मीमांसा मुख्यरूप से होती है । भिन्न-भिन्न दृष्टियों से आत्मस्वरूप का विचार करने पर उसके बारे में उत्पन्न होनेवाली शंकाएँ दूर हो जाती हैं और आत्मा की सच्ची पहचान हो जाने से उस पर अध्यात्म की नींव रखी जा सकती है । यद्यपि यह विषय अत्यन्त विस्तृत है फिर भी इसके बारे में एक दो बातें जरा देख लें ।
कई दार्शनिक' आत्मा को केवल शरीर में ही स्थित न मान कर उसे विभु (शरीर के बाहर भी सर्वव्यापक) मानते हैं । अर्थात् प्रत्येक शरीर की प्रत्येक आत्मा सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है—ऐसा उनका मन्तव्य है । इसके अतिरिक्त उनका ऐसा भी मानना है कि ज्ञान आत्मा का अपना वास्तविक स्वरूप नहीं है, किन्तु शरीर, इन्द्रिय एवं मन के सम्बन्ध से आगन्तुक [उत्पन्न होने वाले] आत्मा का अवास्तविक धर्म है ।
इन दोनों सिद्धान्तों में जैन-दार्शनिक अलग पड़ते हैं । पहली बात अर्थात् आत्मा की व्यापकता के बारे में उनका मानना है कि प्रत्येक शरीर
१. नैयायिक, वैशेषिक तथा सांख्य ।
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