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द्वितीय खण्ड
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का भिन्न-भिन्न आत्मा उस शरीर में ही व्याप्त हो कर रहा है । शरीर के बाहर उस आत्मा का अस्तित्व नहीं है । उनका कहने का अभिप्राय यह है कि ज्ञान, इच्छा आदि गुणों का अनुभव केवल शरीर में ही होने के कारण उन गुणों का अधिष्ठाता आत्मा भी केवल शरीर में ही होना चाहिए । दूसरी बात के सम्बन्ध में जैन-दर्शन का मन्तव्य है कि ज्ञान आत्मा का वास्तविक धर्म है, आत्मा का असल स्वरूप है । आत्मा स्वभावतः ज्ञानमय है । अतः इस मान्यता के अनुसार शरीर, इन्द्रिय एवं मन का सम्बन्ध छुट जाने के बाद मुक्त अवस्था में भी आत्मा का स्वभावसिद्ध ज्ञानस्वरूप अवस्थित ही रहता है । अर्थात् आत्मा अपने सच्चे स्वरूप में ज्ञानमय होने के कारण मुक्त अवस्था में उसका निवारण ज्ञान' पूर्ण रूप से प्रकाशित होता है; जबकि ज्ञान को आत्मा का वास्तविक धर्म नहीं मानने वालों के मत के अनुसार मुक्तिअवस्था में आत्मा ज्ञानशून्य मानना पड़ता है ।
आत्मा के सम्बन्ध में अन्य दार्शनिकों की अपेक्षा जैनों के भिन्न सिद्धान्त इस प्रकार बतलाए गए हैं
"चैतन्यस्वरूपः, परिणामी, कर्ता, साक्षाभोक्ता, स्वदेह परिमाणः, प्रति
१. जिस वस्तु के गुण जहाँ दिखते हों वहीं वह वस्तु होनी चाहिए । घट का रूप जहाँ
दिखता हो वहीं घट हो सकता है । जिस स्थान पर घट का रूप दिखता हो उस स्थान से भिन्न स्थान में उस रूपवाला घट कैसे हो सकता है ? यही बात श्री हेमचन्द्राचार्य अपनी द्वात्रिंशिका में 'यत्रैव यो दृष्टिगुणः स तत्र कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतत्' इन शब्दों से कहकर आत्मा के ज्ञान, इच्छा आदि गुणों का शरीर में ही अनुभव होने के कारण उन गुणों का स्वामी आत्मा भी शरीर में ही रहा सिद्ध होता
है, न कि शरीर के बाहर-ऐसे जैन सिद्धान्त का समर्थन करते हैं । २. बादलों में छुपे हुए सूर्य का चकाचौंध करनेवाला प्रकाश भी बादलों के कारण मन्द
हो जाता है और वही मन्द प्रकाश सच्छिद्र परदेवाले अथवा आवरणयुक्त घर में अधिक मन्द हो जाता है, परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि सूर्य जाज्वल्यमान प्रकाशवाला नहीं है । इसी प्रकार आत्मा के ज्ञानप्रकाश या वास्तविक सच्चिदानन्द स्वरूप का भी शरीर-इन्द्रिय-मन के बन्धन से अथवा कर्मसमूह के आवरण से यदि पूर्णरूप से अनुभव न हो, मन्द अनुभव हो, विकारयुक्त अनुभव हो तो इससे यह नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं है।
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