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क्षेत्रं भिन्न: पौद्गलिकादृष्टिवांश्चाऽयम् ||"
इस सूत्र में आत्मा को प्रथम विशेषण 'चैतन्यस्वरूपवाला' दिया गया है, अर्थात् ज्ञान आत्मा का वास्तविक स्वरूप है। इससे पहले कहे अनुसार ज्ञान को आत्मा का स्वरूप न माननेवाले नैयायिक आदि दार्शनिक जुदा पड़ते हैं । 'परिणामी ' [ नई-नई योनियों में भिन्न-भिन्न गतियों में भ्रमण करने के कारण, भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भी परिवर्तनशील होने के कारण परिणामस्वभाववाला'], 'कर्ता' और 'साक्षात् भोक्ता' इन तीनों विशेषणों से, आत्मा को कमलपत्र की भाँति निर्लेप — सर्वथा परिणामरहित, क्रियारहित माननेवाले और उसे साक्षात् भोक्ता न माननेवाले सांख्य अलग पड़ते हैं । नैयायिक आदि भी आत्मा को परिणामी न मानकर कूटस्थ — नित्य मानते हैं । ' मात्र शरीर में ही व्याप्त' इस अर्थवाले 'स्वदेहपरिमाण' इस विशेषण से, आत्मा को सर्वत्र व्याप्त माननेवाले वैशेषिक- नैयायिक-सांख्य अलग पड़ते हैं । 'प्रत्येक शरीर में भिन्न आत्मा' इस अर्थवाले 'प्रतिक्षेत्र' भिन्न' विशेषण से, एक ही आत्मा मानने वाले अद्वैतवादी वेदान्ती अलग पड़ते हैं । और अन्तिम विशेषण से पौद्गलिकद्रव्यरूप अदृष्टवाला आत्मा कहने से कर्म को अर्थात् धर्म-अधर्म को आत्मा का विशेषण गुण माननेवाले नैयायिक - वैशेषिक और कर्म को तथाविध परमाणु द्रव्यों का समूहरूप नहीं माननेवाले वेदान्ती आदि अलग पड़ते हैं ।
जैनदर्शन
'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' इस वाक्य का वास्तविक अर्थ तो यह है कि जगत् में दृश्यमान सब भौतिक पदार्थ विनाशी हैं, अतः उन्हें मिथ्या अर्थात् असार समझना चाहिए; केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा ही आराध्य है, उसी की आराधना करना यही सत्य है । उक्त वाक्य का यह अर्थ अथवा उसमें से निष्पन्न यह उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । अनादि मोहवासना के भीषण सन्ताप को शान्त करने के लिये ऐसा उपदेश देना प्राचीन महर्षि आवश्यक
१. वादिदेवसूरिकृत 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' नामक न्यायग्रन्थ के सातवें परिच्छेद का ५६ वाँ सूत्र !
२. क्षेत्र अर्थात् शरीर ।
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