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द्वितीय खण्ड
९९
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समझते थे । जगत् के पदार्थ शृङ्ग की भाँति सर्वथा असत् हैं ऐसा अर्थ उक्त वाक्य का करना ठीक नहीं, परन्तु जगत् मिथ्या है अर्थात् असार है—यही अर्थ यथार्थ और सबके अनुभव में आ सके ऐसा है । दृश्यमान बाह्य पदार्थों की नि:सारता का वर्णन करते हुए जैन महात्माओं ने भी उन्हें 'मिथ्या' कहने में कुछ भी बाकी नहीं रखा, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि दुनिया में ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ ही नहीं है । संसार का सब प्रपंच भंगुर और विनश्वर होने से असार है अथवा उस पर का मोह असार है - इस सत्य पर विशेष रूप से भार देने के लिये 'मिथ्या' विशेषण है । परन्तु इससे सर्वानुभवसिद्ध जगत् को खरविषाणवत् सर्वथा असत् नहीं समझना चाहिए । दुनिया में दिखाई देनेवाले भौतिक पदार्थ सद्भूत पदार्थ है । वे दिखते हैं यह झूठी ही प्रतीति है ऐसा नहीं है । जब और जहाँ रस्सी सर्परूप से ज्ञात हो तब और वहाँ सर्प असत् है, अतः उसे समझना भ्रम है, परन्तु सच्चा सर्प सत्सर्प है, अतः उसे सर्प समझना भ्रम नहीं है, यह सच्ची समझ है । कर्म की विशेषता :
अध्यात्म का विषय आत्मा और कर्म से सम्बन्ध रखनेवाले विस्तृत विवेचनों से परिपूर्ण है । अब तक आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में हमने किंचित् अवलोकन किया । अब कर्म की विशेषता के बारे में भी थोड़ा देख लें ।
जड़ पुद्गल द्रव्य में भी अनन्त शक्ति है । पुद्गलरूप 'कर्म' जड़ होने पर भी आत्मा के साथ अत्यन्त घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध होने के कारण और इन दोनों शक्तियों के संयुक्त प्रभाव के परिणामस्वरूप आत्मा पर अपना जबरदस्त प्रभाव डालता है अथवा जबरदस्त प्रभाव डालने का सामर्थ्य रखता है । जिस प्रकार अच्छी-बुरी वस्तुएँ शरीर में जा कर अच्छा-बुरा प्रभाव डालती है उसी प्रकार अच्छे-बुरे कर्मों से (विचार - वाणी वर्तन से ) खास तरह के
१. सब असत् अर्थात् मृगजल की भाँति मिथ्या हो तो बन्ध-मोक्ष का, सुख-दुःख का, सौजन्य - दौर्जन्यका अथवा सत्कर्म-असत्कर्म का भेद - जैसा कुछ रहेगा ही नहीं । तब तो सत्यभूत सिद्धान्त के अथवा सन्मार्ग के उपदेश की भी आवश्यकता नहीं रहेगी । कोई कर्तव्य ही नहीं रहेगा और कोई सवाल भी नहीं रहेगा । अब असत् होने पर असत्-वाद भी क्या असत् नहीं ठहरेगा ?
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