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जैनदर्शन
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'संस्कार' आत्मा में जम जाते हैं, जो खास तरह के भौतिक अणुसंघात के संयोगरूप होते हैं । ये ही शुभाशुभ कर्म हैं जो आत्मा को शुभाशुभ फल चखाते हैं । प्राणियों में, मनुष्यों में दिखाई देने वाली नानाविध विचित्रताएँ इन शुभाशुभ कर्मों पर आश्रित हैं ।
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संसार में दूसरे जीवों की अपेक्षा मनुष्य की ओर हमारी नजर जल्दी जाती है और मानवजाति का हमें सदैव परिचय है इससे उसके बारे में मनन करने पर कितने ही आध्यात्मिक विषयों में विशेष खुलासा हो सकता है ।
: एक सदाचार-सम्पन्न
जगत् में मनुष्य दो प्रकार के मालूम पड़ते हैं और दूसरे उनसे विपरीत । इन दोनों प्रकार के मनुष्यों को भी दो विभागों में विभक्त कर सकते हैं—सुखी और दुःखी । इस प्रकार मनुष्यों के कुल चार विभाग हुएँ : १. सदाचारी सुखी, २. दुराचारी सुखी, ३. सदाचारी दुःखी और ४. दुराचारी दुःखी । ऐसे चारों प्रकार के मनुष्य हमें इस धरातल पर दृष्टिगोचर होते हैं । यह स्पष्ट है कि ऐसी विचित्र स्थिति होने में पुण्य-पाप की विचित्रता कारणरूप है । अतः इन चार प्रकार के मनुष्यों को लेकर पुण्य और पाप के सामान्यतः दो-दो प्रकार बतलाए गए हैं और वे इस प्रकार हैं :
१. पुण्यानुबन्धी पुण्य, २. पापानुबन्धी पुण्य, ३. पुण्यानुबन्धी पाप और ४. पापानुबन्धी पाप ।
पुण्यानुबन्धी पुण्य- जन्मान्तर के जिस पुण्य के उदय के सुखोपभोग करने पर भी धर्मसाधन में अभिरुचि रहे, पुण्य कार्य करने में प्रमोद हो और सदाचारी जीवन व्यतीत किया जाय ऐसे पुण्य को 'पुण्यानुबन्धी पुण्य' कहते हैं। क्योंकि ऐसा पुण्य (पुण्योदय) वर्तमान जीवन में सुख देने के साथ ही साथ जीवन को शुभ अर्थात् पुण्यशाली बनाने में भी सहायक होता है । 'पुण्य का अनुबन्धी' अर्थात् परलोकसाधक पुण्यसाधना के साथ सम्बन्ध रखनेवाला (भविष्य के अच्छे परलोक की पुण्य क्रिया में बाधक न होनेवाला अनुकूल रहनेवाला) जो पुण्य ( पुण्योदय) वह पुण्यानुबन्धी पुण्य है । यह पवित्र पुण्य है ।
पापानुबन्धी पुण्य—— जन्मान्तर के जिस पुण्य के उदय से सुख तो
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