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द्वितीय खण्ड
१०१ मिले परन्तु साथ ही पापासक्ति भी रहे—ऐसे पुण्य को 'पापानुबन्धी पुण्य' कहते हैं । क्योंकि यह पुण्य (पुण्योदय) वर्तमान जीवन में सुख देने के साथ ही साथ जीवन को पतित करने में सहायभूत होता है । पाप का अनुबन्धी अर्थात् पारलौकिक दुर्गति के उत्पादक पापाचरण के साथ सम्बन्ध रखनेवाला जो पुण्य (पुण्योदय) वह पापानुबन्धी पुण्य है । इसके योग से मनुष्य सुख के साधन प्राप्त करता है, परन्तु साथ ही भावी परलोक को बिगाडनेवाला दुष्कृत्यों में आसक्त रहता है । यह नापाक पुण्य है ।
पुण्यानुबन्धी पाप-जन्मान्तर के जिस पाप के उदय से दरिद्रता आदि दुःख सहने पर भी पापाचार का सेवन न किया जाय और पुण्यमार्गरूप धर्मसाधन में उद्यत रहा जाय ऐसे पाप को 'पुण्यानुबन्धी पाप कहते हैं । क्योंकि यह पाप (पापोदय) वर्तमान जीवन में दुःखदायी होने पर भी जीवन को पापी बनाने में निमित्तभूत नहीं होता । 'पुण्य का अनुबन्धी' अर्थात् परलोकसाधक पुण्यसाधना के साथ प्रतिकूल न होनेरूप सम्बन्ध रखनेवाला . जो पाप (पापोदय) वह पुण्यानुबन्धी पाप है । यह भविष्य के अच्छे परलोक के लिये की जानेवाली पुण्य-क्रिया में बाधक नहीं होता।
पापानुबन्धी पाप-जन्मान्तरसंचित जिस पाप के उदय से दरिद्रता आदि दुःख सहन करने पर पाप करनेकी बुद्धि दूर न हो और अधर्म के कार्य करने में तत्परता रहे ऐसे पाप को 'पापानुबन्धी पाप' कहते हैं । क्योंकि यह पाप (पापोदय) वर्तमान जीवन में दुःख देने के साथ ही जीवन को अधम बनाने में भी सहायक होता है । 'पाप का अनुबन्धी' अर्थात् पारलौकिक दुर्गति के उत्पादक पापाचरण के साथ सम्बन्ध रखनेवाला जो पाप (पापोदय) वह पापानुबन्धी पाप है ।
१. इन पुण्यानुबन्धी पुण्य आदि चार प्रकारों के बारे में आचार्य हरिभद्र ने अपने
अष्टकप्रकरण नामक ग्रन्थ के २४वें अष्टक में जो कुछ कहा है उसका उल्लेख यहाँ पर करना योग्य होगा । वे कहते हैं कि
"गेहाद् गेहान्तरं कश्चिच्छोभनादधिकं नरः ।
याति यद्वत् सुधर्मेण तद्वदेव भवाद्भवम् ॥१॥ —जिस प्रकार कोई मनुष्य अच्छे घर में से अधिक अच्छे घर में (रहने के लिये) जाय
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