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जैनदर्शन
उसी प्रकार प्राणी सद्धर्म के प्रभाव से अच्छे भव में से अधिक अच्छे भव में जाता
यह सद्धर्माचरण पूर्वजन्म में उपार्जित पुण्य के सुख सम्पत्तिरूप फल भोगने के समय का है । यह पुण्य (पुण्योदय) पुण्यानुबन्धी पुण्य है; क्योंकि यह सद्धर्म के आचरण के (पुण्य के आचरण के) साथ संयुक्त है ।
गेहाद् गेहान्तरं कश्चिच्छोभनादितरन्नरः
याति यद्वदसद्धर्मात् तद्वदेव भवाद्भवम् ॥२॥ जिस प्रकार कोई मनुष्य अच्छे घर में से खराब घर में (रहने) जाता है उसी प्रकार प्राणी अधर्म के योग से अच्छे भव में से बुरे भव में जाता है। यह अधर्माचरण पूर्वजन्म में उपार्जित विचित्र पुण्य के श्रीमत्त्वादिरूप फल भोगने के समय का है । यह पुण्य (पुण्योदय) पापानुबन्धी पुण्य है, क्योंकि यह पापाचरण से संयुक्त है।
गेहाद् गेहान्तरं कश्चिदशुभादधिकं नरः ।
याति यद्वन्महापापात् तद्वदेव भवाद्भवम् ॥३॥ जिस प्रकार कोई मनुष्य खराब घर में से अधिक खराब घर में (रहने) जाय उसी प्रकार प्राणी महापाप के योग से खराब भव में से अधिक खराब भव में जाता है। यह अधर्माचरण पूर्वजन्म में उपार्जित पाप के दरिद्रता आदि दुःखरूप फल भोगने के समय का है । यह पाप (पापोदय) पापानुबन्धी पाप है, क्योंकि यह पापाचरण से संयुक्त है।
गेहाद् गेहान्तरं कश्चिदशुभादिनरन्नरः ।
याति यद्वत् सुधर्मेण तद्वदेव भवाद्भवम् ॥४॥ जिस प्रकार कोई मनुष्य खराब घर में से अच्छे घर में (रहने के लिये) जाय उसी प्रकार प्राणी सद्धर्म के प्रभाव से खराब भव में से अच्छे भव में जाता है । यह सद्धर्माचरण पूर्वजन्म में उपार्जित पाप के दारिद्र्य आदि दुःखरूप फल भोगने के समय का है । यह पाप (पापोदय) पुण्यानुबन्धी पाप है क्योंकि यह सद्धर्माचरण से (पुण्याचरण से) संयुक्त है। इन चार श्लोकों के बाद पाँचवें श्लोक में आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि यह सब जान कर मनुष्य को पुण्यानुबन्धी पुण्य का आचरण करना चाहिए जिससे अक्षय्य सकल सम्पत्ति प्राप्त हो । इसके बाद छठे श्लोक में वे कहते हैं कि रागादि क्लेशों से रहित
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