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द्वितीय खण्ड
१०३
संक्षेप में पूर्वजन्म के जिस पुण्य के फल (अच्छे फल) का उपभोग करते समय नया पुण्य उपार्जन किया जाय उसका नाम 'पुण्यानुबन्धी पुण्य' है । पूर्वजन्म के जिस पाप के फल (बुरे फल) का उपभोग करते समय शान्ति, समता, पश्चात्ताप एवं सत्कर्म द्वारा पुण्य उपार्जित किया जाय उसे 'पुण्यानुबन्धी पाप' कहते हैं । पूर्वजन्म के जिस पुण्य के फल का उपभोग करते समय मत्त - प्रमत्त होकर जो नये-नये पाप किए जाते हैं, उसका नाम 'पापानुबन्धी पुण्य' है । और पूर्वजन्म के जिस पाप के फल का उपभोग करते समय नया पाप उपार्जन किया जाय उसे 'पापानुबन्धी पाप' कहते हैं ।
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संसार में जो मनुष्य - नरनारी सुखी हैं और धर्म्य जीवन बिताते हैं उन्हें पुण्यानुबन्धी पुण्यवाला समझना । सुखसामग्री उपलब्ध होने पर भी जो पापाचरण में आसक्त हैं उन्हें पापानुबन्धी पुण्यवाले जानना । दरिद्रतादि कष्ट की हालत में होने पर भी जो पुण्य - पथ पर विहरते हैं वे पुण्यानुबन्धी पापवाले
चित्त - रत्न प्राणी का आन्तरिक धन है । यह धन जिसका चुरा जाता है उसे अनेक विपत्तियाँ घेर लेती हैं । इसके बाद आठवें श्लोक में वे कहते हैं कि भूतदया, सदाचारिता, और शमभाव तथा ये पुण्यानुबन्धी पुण्य प्राप्त करने के मार्ग हैं ।
महात्मा बुद्ध एक बार जब जेतवन में विहर रहे थे, उस समय एक राजा ने उन्हें पूछामहाराज ! आप कहते हैं कि मनुष्य चार प्रकार के होते हैं । यह किस तरह ? समझाईए । '
उन्होंने जवाब में कहा—
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मनुष्य चार प्रकार के हैं एक तिमिर में से तिमिर की ओर जानेवाले, दूसरे तिमिर में से ज्योति की ओर जानेवाले, तीसरे ज्योति में से तिमिर की तरफ जानेवाले और चौथे ज्योति में से ज्योति की तरफ़ जानेवाले ।
जो चाण्डाल, निषाद आदि दीन-हीन कुल में जन्मे हैं और सारी ज़िन्दगी दुष्कृत्यों में व्यतीत करते हैं वे तिमिर में से तिमिर की ओर जा रहे हैं । दूसरे जो दीन-हीन कुल में पैदा होने पर भी मनसा, वचसा, कर्मणा सत्कर्म करते रहते हैं, वे तिमिर में से ज्योति की ओर जा रहे हैं। तीसरे जो उच्च गिने जानेवाले कुल में जन्मे हैं। और सुखी हैं, किन्तु दुष्कर्मपरायण रहते हैं, वे ज्योति में से तिमिर में जा रहे हैं । और, चौथे जो प्रशस्त कुल में जन्मे हैं, सुखी हैं और साथ ही सदा सदाचरणपरायण हैं वे ज्योति में से ज्योति में जा रहे हैं ।
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