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________________ १०४ जैनदर्शन हैं और दरिद्र-दुःखी होने पर भी पापपरायण हैं वे पापानुबन्धी पापवाले हैं । विश्वासघात, हत्या, चोरी-डकैती, दगा आदि से पैसे वाले बन कर बडे-बडे बंगलों में भोगविलास करनेवाले कुछ मनुष्यों को देख कर अदूरदृष्टि मनुष्य कहने लगते हैं कि 'देखो भाई, पाप करनेवाले कैसी मौज उड़ाते हैं और धार्मिक के घर में तो चूहे चौकड़ी भरते हैं । अब कहाँ रहा धर्म कर्म ?, परन्तु यह कथन कितना अज्ञानपूर्ण है यह तो उपर्युक्त कर्मविषयक विवेचन पर विचार करने से अवगत हो सकता है । इस जीवन में अनेकानेक पाप करने पर भी पूर्वोपार्जित पुण्यबल का प्रभाव जब तक रहता है तब तक सुखोपभोग शक्य है; परन्तु यह सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि प्रकृति का राज्य यह कोई 'पोपाबाई' का राज्य नहीं है कि किया-कराया सारा पाप निष्फल ही हो । प्रकृति का साम्राज्य सुनियमित है। उसके सूक्ष्म तत्त्व अगम्य हैं । मोह के अन्धकार में भटकता हुआ प्राणी चाहे जैसी कल्पनाएँ कर के अपने आपको निर्भय क्यों न समझे अथवा निर्भय रहना चाहे, परन्तु यह निश्चित है कि प्रकृति के अटल शासन में से कोई भी अपराधी न तो अब तक छिटक सका है न छिटक सकेगा । साथ ही, यह अवश्य ख्याल रखना चाहिए कि इस जीवन में किए हुए उग्र पापों का फल इस जीवन में भुगतना पड़ता है । १. सत्यमत्युग्रपापानां फलमत्रैव लभ्यते--इस प्रकार का वचन आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र प्रकाश २, श्लोक ३० पर की कथा में मगधेश्वर श्रेणिक राजा के पुत्ररत्न अभयकुमार के मुख से कहलाते हैं । उग्र पाप की भाँति उग्र पुण्य का फल भी इस जन्म में मिल सकता है। "जं जेण कर्य कम्मं अनभवे इह भवे सत्तेणं । तं तेण वेइअव्वं निमित्तमित्तं परो होइ ॥" यह शास्त्र-गाथा कहती है कि बँधा हुआ कर्म भुगतना पड़ता है, चाहे वह अन्य भव में बाँधा हो अथवा इस भव में । इस कर्म की वेदना का प्रयोजक प्राणी तो निमित्तमात्र है। इस उल्लेख पर से विदित होता है कि इस भव के कर्म का उदय इस भव में भी हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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