________________
द्वितीय खण्ड
१०५
पुण्य पाप की विवेचना के अवसर पर सुख और उससे सम्बद्ध धन के विषय में कुछ स्पष्टता करना उचित है ।
धन के प्राचुर्य से सुख नहीं नापा जा सकता । यह नाप गलत नाप है । धन का अतिसंग्रह न केवल पाप ही है, वह अतिदुःखदायी चिन्ताओं को उत्पन्न करके मन की शान्ति भी हर लेता है । अतः उसका सुख परिभाषा में कैसे समावेश हो सकता है ? मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएँ पूर्ण हों, उसे निवासस्थान आदि मिले और वह भी न्यायमार्ग से तथा जो उपलब्ध हो उसमें वह सन्तुष्ट रहे और यदि न्यायमार्ग द्वारा आवश्यकता से अधिक उपलब्ध हो तो सेवा - परोपकार करने की वृत्ति रहे तो उसे सुख कह सकते हैं । क्योंकि ऐसा करने से वह चित्त की शान्ति को न खोकर मन में एक प्रकार का आनन्द अनुभव करता है । अवश्य, धन जीवननिर्वाह का साधन होने से सुख - सामग्री की प्राप्ति में उपयोगी है, परन्तु वह न्यायोपार्जित होना चाहिए और अपनी तथा अपने कुटुम्ब की उचित जरुरतों की पूर्ति के बाद यदि बचे तो परोपकार में उसका व्यय करना चाहिए— इतनी उपयोगिता के अतिरिक्त उसकी अधिक प्रतिष्ठा करना ठीक नहीं और आध्यात्मिक दृष्टि से तो वह अनुचित ही है । जीवन - विकास की साधना अथवा धर्म की उपासना का सम्बन्ध परिग्रह के साथ नहीं किन्तु अपरिग्रह अथवा परिग्रहपरिमाण के साथ है । केवल धन को पुण्य का चिह्न नहीं समझना चाहिए । अन्यायोपार्जित धन दौर्भाग्य का सूचक है । पुण्य का सूचक और सुखदायक धन न्यायोपार्जित धन है । धनवान की अपेक्षा सद्गुणी का स्थान कहीं ऊँचा है इस प्रकार के दृष्टिसंस्कार का समाज में प्रसार होना आवश्यक । परिमित परिग्रह के सुसंस्कार समाजव्यापी होने पर समाज की सुखशान्ति एवं नैतिक प्रभा खिल उठेगी ।
1
अब, आचार-व्यवहार की शुद्धि आवश्यक होने से इस विषय में भी तनिक दृष्टिक्षेप करके इस दूसरे खण्ड को पूर्ण करें ।
जैन आचार :
साधुधर्म एवं गृहस्थधर्म का सामान्य दिग्दर्शन पहले किया जा चुका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org