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पर भी आदरपूर्वक विचार करना और जैसे विरोधी पक्ष पर वैसे खुद अपने पक्ष पर भी तीव्र समालोचक दृष्टि रखना ।
(४) अपने तथा दूसरों के अनुभवों में से जो-जो अंश ठीक मालूम हों, फिर वे चाहे विरोधी ही क्यों न प्रतीत होते हों, उन सबका विवेकबुद्धि से समन्वय करने की उदारता का अभ्यास करना और जैसे-जैसे अनुभव बढ़ता जाय वैसे-वैसे पहले के समन्वय में जहाँ भूल मालूम पड़ती हो वहाँ मिथ्याभिमान का त्याग करके सुधार करना और इस तरह आगे बढ़ना ।
अनेकान्तदृष्टि में से नयवाद और सप्तभंगीवाद फलित हुए । विचार की जितनी पद्धतियाँ उस समय प्रचलित थीं उनको नयवाद में स्थान मिला और किसी एक ही वस्तु के बारे में प्रचलित विरोधी कथन अथवा विचारों को सप्तभंगीवाद में स्थान मिला।
अपना भला हो—इस बात की कोशिश मनुष्य जीवन के अन्तिम क्षण तक करता रहता है । सतत परोपकारनिरत महात्माओं की भी इच्छा परोपकारव्यापार द्वारा अपने परमात्मतत्त्व को प्रकट करने की ही रहती है । परोपकारव्यापार में आत्म-कल्याण की सहज भावना का स्थान प्रमुखरूप से होता है । स्थिरचेता शान्त प्रज्ञावान् योगी भी इसी विचार से अपनी साधना में संलग्न रहते हैं कि इस जन्म में न सही, तो अगले जन्म में कभी परमात्मभाव को प्राप्त कर ही लेंगे ।
__शरीर के नाश के पश्चात् यदि चेतन का अस्तित्व न माना जाय तो व्यक्ति का उद्देश कितना संकुचित बन जाता है ? और कार्यक्षेत्र भी कितना अल्प रह जाता है ? 'इस जन्म में नहीं तो भावी जन्म में भी मेरा लक्ष्य मैं सिद्ध करूँगा'-यह भावना मानव-हृदय में जितना बल प्रकट कर सकती है उतना बल दूसरा कोई प्रकट नहीं कर सकता । यह सब ध्यान में लेने पर नित्य सनातन स्वतन्त्र चेतन तत्त्व का अस्तित्व प्रतीत हो सकता है । यह (चेतन-आत्मा) जानबूझ कर अथवा अनजाने में जो अच्छा-बुरा कर्म करती है उसका फल उसे मिलता है और कर्मबन्ध के कारण उसे पुनर्जन्म के चक्कर में घूमना पड़ता है ।
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