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भी उसका उसी रूप में शब्द द्वारा ठीक-ठीक कथन करना कठिन ही है । देश, काल, परिस्थिति, भाषा, शैली आदि के भेद के कारण उन सबके कथन में कुछ-न-कुछ भिन्नता, विरुद्धता दिखाई दे यह अनिवार्य है ।
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पूर्णदर्शी महापुरुषों की बात जाने दें और लौकिक जगत् की बात करें तो लौकिक मनुष्यों में भी अनेक सत्यप्रिय यथार्थवादी होते हैं; परन्तु वे अपूर्णदर्शी होते हैं और अपने अपूर्ण दर्शन को दूसरों के समक्ष उपस्थित करने की भी उनमें अपूर्णता होती है । अतः सत्यप्रिय मनुष्यों की समझ में भी कभी-कभी परस्पर भिन्नता आ जाती है और संस्कारभेद उसमें और अधिक पारस्परिक टक्कर पैदा कर देता है । इस तरह, पूर्णदर्शी तथा अपूर्णदर्शी सभी सत्यवादियों के द्वारा अन्त में भेद और विरोध की सामग्री स्वतः प्रस्तुत हो जाती है, अथवा दूसरे लोग उनके पास से अथवा उनके द्वारा ऐसी सामग्री पैदा कर लेते है ।
यह वस्तुस्थिति देखकर तत्त्वद्रष्टा महावीर ने विचार किया कि कोई ऐसा मार्ग निकालना चाहिए जिससे कि वस्तु का पूर्ण अथवा अपूर्ण सत्यदर्शन करनेवाले के साथ अन्याय न होने पाए। दूसरे का दर्शन अपूर्ण और हमारे अपने दर्शन के विरुद्ध होने पर भी यदि सत्य हो, और इसी प्रकार, हमारा अपना दर्शन अपूर्ण और दूसरे से विरुद्ध होने पर भी यदि सत्य हो तो इन दोनों को न्याय मिले ऐसा मार्ग निकालना चाहिए । इसी मार्ग का नाम अनेकान्तदृष्टि है । इस कुंजी से उस सन्तपुरुष ने वैयक्तिक और सामूहिक जीवन की व्यावहारिक एवं पारमार्थिक समस्याओं के ताले खोल दिए । उन्होंने जीवनोपयोगी विचार और आचार के निर्माण करने के समय इस अनेकान्तदृष्टि को, नीचे की शर्तों के साथ, प्रकाश में रखा और उसके अनुसरण का उपदेश दिया
(१) राग-द्वेष की वृत्ति के वश न होकर सात्त्विक माध्यस्थ्य
रखना ।
(२) जबतक माध्यस्थ्य का पूर्ण विकास न हो तब तक उस लक्ष्य की ओर ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा रखना ।
(३) जैसे हमारे अपने पक्ष पर वैसे दूसरों के विरोधी लगनेवाले पक्ष
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