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ग्रन्थ का उपदेशसार
सभी महापुरुष सत्यशोधक तथा सत्यग्राहक होते हैं, फिर भी उन सबकी सत्य की खोज एव उसके निरूपण की पद्धति एक जैसी नहीं होती । बुद्ध की जो निरूपणशैली है उसकी अपेक्षा महावीर की निरूपणशैली भिन्न है । महावीर की इस विशिष्ट शैली का नाम है 'अनेकान्तवाद' । वस्तु का पूर्णरूप से यथार्थ दर्शन होना कठिन है । जिन्हें वह होता है उनके लिये
१. बुद्धदेव की प्रकृति तत्कालीन परस्पर विरोधी वादों से अलिप्त रहने की थी । इसलिये वे तत्कालीन दार्शनिक प्रश्नों को, जो उनके सम्मुख उपस्थित होते थे, एक तरह से अस्पृश्य [ अव्याकृत अर्थात् जिनका खुलासा अथवा निरूपण न किया जा सके ऐसे ] कह देते । दृष्टान्त के तौर पर, जीव को नित्य भी वे यहीं कह सकते थे और यदि अनित्य कहें तो चार्वाक जैसे भौतिकवादिसम्मत 'उच्छेदवाद' गर्दन पर सवार हो जाय । अतः ऐसे प्रश्नों को वे 'अव्याकृत कहकर जन्म-मरण के उच्छेद की बात को अपने उपदेश का विषय बतलाते थे । इसके विपरीत, महावीर देव की प्रकृति सभी विरोधी वादों को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखने की थी। वे ऐसे प्रश्नों का हल सापेक्षरूप से करते थे । उदाहरणार्थ, वे जीव को नित्य और अनित्य, लोक को शाश्वत और अशाश्वत, जीव एवं शरीर को भिन्न और अभिन्न- इस तरह भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से जताकर उसका समर्थन करते थे । ऐसे प्रामाणिक (तथाकथित) विरोधों का वे युक्तिपुरस्सर समाधान करते थे। ऐसे अनेक प्रश्नों के सापेक्षरूप से महावीर द्वारा किए गए समाधान आज भी उनके मूल आगमों में मिलते हैं, जो उस महापुरुष की व्यापक प्रतिभा के द्योतक हैं ।
बुद्ध की दृष्टि समन्वयात्मक नहीं थी ऐसा नहीं है । वे भी 'विभज्यवाद' के नाम से अनेकान्तवादी थे--अमुक अंश में । 'सिंह' सेनापति ने जब उनसे पूछा कि लोग आपको अक्रियावादी कहते हैं, तो यह क्या ठीक ? तब उन्होंने कहा था कि शुभक्रिया करने का उपदेश देता हूँ अतः क्रियावादी हूँ और अकुशल-क्रिया न करने का उपदेश देता हूँ अतः अक्रियावादी हूँ ।
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