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-हज़ारों दुर्जय संग्रामों को जीतनेवाले की अपेक्षा एक अपनी आत्मा को जीतनेवाला बड़ा है । सब प्रकार के बाह्य विजयों की अपेक्षा आत्मजय श्रेष्ठ है।
अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पणामेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥
-उत्तराध्ययन ९, ३५. अपने आप के (आत्मा के) साथ युद्ध कर । बाह्य युद्ध करने से क्या ? अपने आपको-आत्मा को जीतने से परम सुख प्राप्त होता है ।
‘से असई उच्चागोए, असई नीआगोए, नो हीणे, नो अईरिते, x x x को गोयावाई ? को माणावई ?"
-आचारांगसूत्र २-३-७७. -जीव अनेक बार उच्च गोत्र में, अनेक बार नीच गोत्र में गया है । अत: उच्च कौन और नीच कौन ? कौन गोत्रवादी ? और कौन अभिमानवादी (गोत्र पर घमण्ड रखने वाला ?
___ 'जहा पुण्णस्स कत्थई तहा तुच्छस्स कत्थई; जहा तुच्छस्स कत्थई तहा पुण्णस्स कत्थई ।'
-आचारांगसूत्र २-६-१०१. -सन्त अथवा सुज्ञ पुरुष पुण्यशाली के (धनाढ्य अथवा धराधीश जैसे के) आगे जैसा वाणीव्यवहार करता है वैसा ही दीन-हीन-ग़रीब के आगे वाणीव्यवहार करता है; और जैसा दीन-हीन-गरीब के आगे वाणीव्यवहार करता है वैसा ही पुण्यशाली के आगे वाणीव्यवहार करता है ।
'पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेहावी मारं तड् ।'
-आचारांगसूत्र ३-३-११८. __-मनुष्यो ! सत्य को समझो । सत्य की आज्ञा पर चलनेवाला मेधावी मृत्यु को तैर जाता है। 'सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । -
-आचारांगसूत्र ३-४-१२३. -प्रमादी को सर्वत्र भय है, अप्रमत्त को कहीं भी भय नहीं है ।
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