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श्री हरिभद्राचार्य योगबिन्दु में कहते हैं कि
दैवं नामेह तत्त्वेन कर्मैव हि शुभाशुभम् ।
तथा पुरुषकारश्च स्वव्यापारो हि सिद्धिदः || ३१९॥
शुभ - अशुभ कर्म ही दैव है और अपना उद्यम ही पुरुषकार (पुरुषार्थ) है ।
व्यापारमात्रात् फलदं निष्फलं महतोऽपि च ।
अतो यत् कर्म तद् दैवं चित्रं ज्ञेयं हिताहितम् ॥ ३२२||
-- जो कर्म अल्प उद्यम करने पर भी फलदायक होता है और महान् उद्यम करने पर भी निष्फल जाता है, उस कर्म को दव कहते हैं और वह शुभ - अशुभरूप से नानाविध है ।
एवं पुरुषकारस्तु व्यापारबहुलस्तथा । फलहेतुर्नियोगेन ज्ञेयो जन्मान्तरेऽपि हि ॥ ३२३ ॥ अन्योन्यसंश्रयावेवं द्वावप्येतौ विचक्षणः ॥ ३२४॥
इसी प्रकार पुरुषार्थ प्रचुरप्रयत्नरूप है और यह आगामी जन्म में भी अवश्य फलदायक होता है ।
ये (कर्म और पुरुषार्थ ) दोनों परस्पर आश्रित हैं ।
इसके बाद ३२६ वें श्लोक में वे बतलाते हैं कि कर्म जीव के प्रयत्न के बिना फलसाधक नहीं होता ।
दैवं पुरुषकारेण दुर्बलं ह्युपहन्यते ।
दैवेन चेषोऽपीत्येत × × × ॥३२७॥
पुरुषार्थ से दुर्बल दैव का नाश होता है और प्रबल दैव से पुरुषार्थ का नाश होता है । जो बलवत्तर होता है उससे दूसरे का नाश होता है । मनुष्य की मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति अथवा बरताव के कटु फल उसे वैसी प्रवृत्ति अथवा बरताव के कारण चखने पड़ते हैं । अपनी भोगासक्ति, दुर्व्यसनिता अथवा प्रमादशीलता से जो शारीरिक आदि दुर्दशा अपने पर या दूसरे पर आ पड़ती है वह उस भोगासक्ति आदि के कारण है ऐसा मानना
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