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________________ २० श्री हरिभद्राचार्य योगबिन्दु में कहते हैं कि दैवं नामेह तत्त्वेन कर्मैव हि शुभाशुभम् । तथा पुरुषकारश्च स्वव्यापारो हि सिद्धिदः || ३१९॥ शुभ - अशुभ कर्म ही दैव है और अपना उद्यम ही पुरुषकार (पुरुषार्थ) है । व्यापारमात्रात् फलदं निष्फलं महतोऽपि च । अतो यत् कर्म तद् दैवं चित्रं ज्ञेयं हिताहितम् ॥ ३२२|| -- जो कर्म अल्प उद्यम करने पर भी फलदायक होता है और महान् उद्यम करने पर भी निष्फल जाता है, उस कर्म को दव कहते हैं और वह शुभ - अशुभरूप से नानाविध है । एवं पुरुषकारस्तु व्यापारबहुलस्तथा । फलहेतुर्नियोगेन ज्ञेयो जन्मान्तरेऽपि हि ॥ ३२३ ॥ अन्योन्यसंश्रयावेवं द्वावप्येतौ विचक्षणः ॥ ३२४॥ इसी प्रकार पुरुषार्थ प्रचुरप्रयत्नरूप है और यह आगामी जन्म में भी अवश्य फलदायक होता है । ये (कर्म और पुरुषार्थ ) दोनों परस्पर आश्रित हैं । इसके बाद ३२६ वें श्लोक में वे बतलाते हैं कि कर्म जीव के प्रयत्न के बिना फलसाधक नहीं होता । दैवं पुरुषकारेण दुर्बलं ह्युपहन्यते । दैवेन चेषोऽपीत्येत × × × ॥३२७॥ पुरुषार्थ से दुर्बल दैव का नाश होता है और प्रबल दैव से पुरुषार्थ का नाश होता है । जो बलवत्तर होता है उससे दूसरे का नाश होता है । मनुष्य की मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति अथवा बरताव के कटु फल उसे वैसी प्रवृत्ति अथवा बरताव के कारण चखने पड़ते हैं । अपनी भोगासक्ति, दुर्व्यसनिता अथवा प्रमादशीलता से जो शारीरिक आदि दुर्दशा अपने पर या दूसरे पर आ पड़ती है वह उस भोगासक्ति आदि के कारण है ऐसा मानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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