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________________ द्वितीय खण्ड परिणामरूप पुण्य अथवा पापकर्म बाँधता ही है परन्तु उसे उस कार्य में प्रवृत्त करनेवाला भी बाँधता है । और उस कार्य का अनुमोदन करनेवाला भी बाँधता है । अलबत्ता, पुण्य अथवा पाप कार्य करनेवाले की अपनी मनोवृत्ति उस कार्य को करानेवाले अथवा उसका अनुमोदन करनेवाले की अपेक्षा अधिक सबल हो सकती है, परन्तु यह एकान्त नहीं है । विवश होकर जिसे कार्य करना पड़ता है उसके मन के अध्यवसाय की अपेक्षा करानेवाले के अध्यवसाय अधिक तीव्र हो सकते हैं । उदाहरणार्थ, किसी मनुष्य को पुलिस द्वारा पिटवानेवाले अफसर की मानसिक रौद्रता, विवश बनकर पीटनेवाले पुलिस की अपेक्षा अधिक उग्र होती है । इसी प्रकार प्रचाररसिक अनुमोदक के मन के अध्यवसाय करने-करानेवाले के अध्यवसाय की अपेक्षा कदाचित् अधिक तीव्र हो सकते हैं। किसका अध्यवसाय अधिक तीव्र है यह अपूर्ण मानव जान नहीं सकता । सिद्धान्त की बात इतनी ही है कि इन तीनों में से जिसके जैसे अध्यवसाय होते हैं उसे वैसे ही कर्म का बन्ध होता है । मन-वचन-काय (३), पाँच इन्द्रियाँ (८), आयुष्य (९), तथा श्वासोच्छ्वास (१०) ये कुल १० प्राण हैं । दूसरे के या अपने इनमें से किसी एक अथवा एकाधिक प्राण को प्रमाद अथवा दुर्बुद्धि से आघात पहुँचाना अथवा उसका नाश करना हिंसा है । इस पर से यह समझा जा सकता है कि प्रमाद से अथवा दुर्बुद्धि या द्वेष से किसी को बुरा लगाना, किसी का अपमान करना, किसी की निन्दा करना, किसी की चुगली खाना, किसी को सन्तप्त करना, किसी को कष्ट देना-संक्षेप में किसी का बुरा करना या किसी का मन दुखाना हिंसा है । इतना ही नहीं, दूसरे के प्राणों को आघात पहुँचाने की अथवा दूसरे का बुरा करने की स्थूल क्रिया न हो तब भी दूसरे का बुरा सोचनेमात्र से भी हिंसा का दोष लगता है। झूठ, चोरी, बेईमानी, धूर्तता और क्रोध, लोभ, छल, दम्भ, मद, मत्सर, द्वेष आदि विकार भरपूर हिंसारूप होने से पाप हैं । वस्तुतः अहिंसा की उपासना इन दोषों को तथा मन के दुश्चिन्तन को दूर करके चित्तशोधन के व्यापार में उद्यत रहने में है । "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा"-हिंसा के इस लक्षणसूत्र से यह १. महर्षिउमास्वाति-रचित तत्त्वार्थसूत्र अ. ७. सू ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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