________________
४४
जैनदर्शन बतलाया गया है कि प्रमत्तयोग से—प्रमाद से अर्थात् राग-द्वेष की वृत्ति से प्राणी के प्राणों का विनाश करना हिंसा है । और अपनी असावधानता के कारण प्राणी के प्राण की हिंसा हो तो वह भी प्रमत्तयोग वाली हिंसा ही है । प्रमत्तदशा भावहिंसा है और प्राणी के प्राणों का विनाश द्रव्य-हिंसा (प्रमत्तयोग) स्वयं दोषरूप (पापरूप) हिंसा है, जबकि द्रव्य-हिंसा भाव-हिंसा के साथ मिलकर पापरूप हिंसा बनती है । हिंसा का सर्वथा त्याग गृहस्थावस्था में शक्य न होने से गृहस्थ के लिये उसका त्याग मर्यादित करके दिखलाया गया है । वह मर्यादा 'निरपराध स्थूल (स) जीवों को संकल्प से न मारूं? 'इस प्रकार की बतलाई गई है । इस बात का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है
पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये स्थावर जीव स्वाभाविक भोगोपभोगरूप हैं तथा जीवनचर्या में उनका उपयोग सतत अपेक्षित है, अत: गृहस्थ के अहिंसाव्रत में उनकी हिंसा के त्याग का समावेश न करके 'स्थूल (त्रस-द्वीन्द्रियादि) जीवों का वध न करूँ' इस प्रकार से इस व्रत की मर्यादा अंकित की गई है । परन्तु घर-मकान, खेती बाडी-कुआँ तालाब आदि आरम्भ-समारम्भ के कार्यों में कीड़े-मकोड़े आदि स्थूल (बस) जीवों की भी हिंसा का सम्भव रहता ही है । अतः 'स्थूल जीवों की हत्या न करूँ--इतने से न चलने के कारण इस व्रत में 'संकल्प से' (अर्थात् जानबूझकर) का समावेश किया गया है । इस प्रकार 'स्थल जीवों की जानबूझकर हत्या न करूँ' इस प्रकार का यह व्रत हुआ । ऐसा होने से आरम्भ-समारम्भ के कार्यों में जो स्थूल जीवों की हिंसा होती है वह जानबूझकर यदि न हो तो वह हिंसा इस व्रत में बाधक नहीं होती । इतना होने पर भी एक प्रश्न तो रहा ही कि विकट परिस्थिति के समय यदि अपराधी का वध करना पड़े तो उसका क्या ? इसलिये इसकी भी छूट का समावेश करने के लिये इस व्रत के उल्लेख में 'निरपराध' शब्द रखकर 'अपराधी के अतिरिक्त दूसरे स्थूल जीवों कि जानबूझकर हिंसा न करूं
१. पङ्गकुष्ठिकुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां संकल्पतस्त्यजेत् ॥
-आचार्य हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-१९.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org