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द्वितीय खण्ड
इस तरह व्रत का स्वरूप पूर्ण किया गया है ।
इस पर से यही फलित होता है कि स्थूल हिंसा चार प्रकार की है(१) संकल्पी, (२) आरम्भी, (३) उद्योगी और (४) विरोधी । किसी निरपराध प्राणी की जानबूझकर हिंसा करना 'संकल्पी' हिंसा है, घर, दूकान, खेत आदि के आरम्भ-समारम्भ में रसोई आदि प्रवृत्तियों में यत्नाचार (सावधानी) रखने पर भी त्रस जीवों की जो हिंसा होती है वह 'आरम्भी' हिंसा है। द्रव्योपार्जन में इस प्रकार की जो हिंसा होती है वह 'उद्योगी' हिंसा है। दुष्ट नराधम के हमले से बचने के लिये तथा स्व-पर की रक्षा के लिये उसका जो वध किया जाता है वह 'विरोधी' हिंसा है । इन चार प्रकार की हिंसाओं में से संकल्पी हिंसा तो गृहस्थी के लिये सर्वथा वर्ण्य है । अवशिष्ट तीन में से आरम्भी और उद्योगी तो स्वाभाविक रूप से गृहस्थ के साथ संबंध रखती हैं और अन्तिम विरोधी हिंसा का भी कभी-कभी उसे आश्रय लेना पड़ता है ।
आरम्भी और संकल्पी हिंसा में यही अन्तर है कि आरम्भी हिंसा में गृहनिर्माण, रसोई, खेतीबाड़ी आदि कार्यों की प्रधानता होती है । इन कार्यों के करने में यद्यपि जीव अवश्य मरते हैं, परन्तु इनमें जीवों की सीधी हिंसा नहीं होती अर्थात् जानबूझकर इनमें जीवों की हिंसा नहीं की जाती, किन्तु कार्यप्रवृत्ति के अनुसन्धान में जीवों की हिंसा हो पाती है । परन्तु संकल्पी हिंसा में जीववध की मुख्यता होती है । इसमें खास तौर पर जानबूझकर जीववध की प्रवृत्ति की जाती है । जीवहिंसा के संकल्प से अर्थात् जानबूझकर की जानेवाली हिंसा 'संकल्पी हिंसा' है । विकट परिस्थिति में विरोधी का जो वध करना पड़ता है उसमें यद्यपि विरोधी के वध का संकल्प तो होता ही है, परन्तु वह न्याय्य एवं सकारण होने से उसका निर्देश 'विरोधी हिंसा' के पृथक नाम से किया गया है और इसीलिये गृहस्थ के अहिंसा व्रत में इस विरोधी हिंसा का त्याग नहीं लिया गया ।
इरादा न होने पर भी अज्ञातरूप से-असावधानी से हिंसा न करने के स्थान में यदि हिंसा हो जाय तो वह प्रामादिक हिंसा है, अतः उसका भी वर्जनीय कक्षा में समावेश होता है, यह समझ लेना चाहिए ।
उपर्युक्त अहिंसा की मर्यादा के निर्देशवाक्य में रखे हुए 'निरपराध'
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