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________________ जैनदर्शन शब्द की उपयोगिता के बारे में कुछ विशेष कहना प्रासंगिक है । आततायी नराधम का, उसकी ओर से होनेवाले अनीति, अत्याचार अथवा उत्पीडन का, अहिंसा की रीति से शक्य न हो तो दूसरे प्रकार से योग्य सामना अथवा प्रतीकार करने से गृहस्थधर्म को आँच नहीं आती; बल्कि उस समय ऐसा करना उसके लिये न्यायधर्म्य - कर्तव्य हो जाता है। ऐसे विकट संकट के समय यदि साधु भी लोकहित के लिये योग्य कदम उठाए तो वह मुनासिव समझा जायगा । विश्व सर्वत्र जीवों से खचाखच भरा हुआ है, प्रवृत्तिमात्र में जीवहिंसा है, फिर भी योग्य सावधानता (यत्नाचार) रखकर प्रवृत्ति करनेवाला अहिंसकबुद्धि मनुष्य, प्रवृत्तिक्रिया में अनिवार्य रूप से हिंसा होने पर भी हिंसा के दोष से मुक्त रहता है; जबकि प्रमादी मनुष्य की प्रमादयुक्त प्रवृत्ति में कदाचित् हिंसा (स्थूल हिंसा) न होने पर भी प्रमाद के कारण उसे हिंसा का दोष लगता ही है । प्रवृत्तिमात्र में हिंसा होने के कारण ही शायद निवृत्ति पर अधिक भार दिया गया है । इसके पीछे का तात्पर्य यही प्रतीत होता है कि प्रवृत्तिमात्र में हिंसा होने के कारण प्रवृत्ति जिनती कम होगी उतनी हिंसा भी कम ही होगी । परन्तु इस तरह हिंसा कम हो इस लिये कर्तव्यरूप प्रवृत्ति का अथवा लोककल्याण की प्रवृत्ति का संकोच कैसे किया जा सकता है ? हिंसा के डर से ऐसी प्रवृत्ति कम नहीं की जा सकती । विवेकपूर्वक यत्नाचार से ऐसी प्रवृत्ति यदि की जाय तो देहयात्रासुलभ सहज-साधारण जीवहिंसा होने पर भी उस हिंसा का दोष नगण्य है, बल्कि प्रशस्त कर्तव्यपालन के पुण्यप्रवाह में ऐसा तनिक सा दोष कहीं विलीन हो जाता है । और निवृत्ति लेने मात्र से अहिंसा की साधना हो जायगी ऐसा कहाँ निश्चित है ? निवृत्ति लेने से मन शान्त हो जायगा ऐसा कोई नियम नहीं है । शारीरिक स्थिरता के समय भी मन तो अस्थिर-चंचल बना रहता है । एक ओर शारीरिक संयम प्रबल होने पर भी दूसरी ओर मन की रौद्रता घोर नरक के कर्म का उपार्जन कर सकती है । (इस विषय में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि आदि के शास्त्रोक्त उदाहरण प्रसिद्ध हैं ।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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