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द्वितीय खण्ड
और भोजन-पान आदि की प्रवृत्ति यदि चालू रखी जा सकती हो तो अपनी योग्य जिम्मेदारी एवं लोकहित की प्रवृत्ति क्योंकर बन्द हो जाय ?
बन्ध-मोक्ष का आधार मन के भाव पर है । मन का अच्छा भाव वचन एवं काय को शुभ की ओर प्रवृत्त करता है । अतः मन को सतत जाग्रत रखना यही एक महत्त्व की बात है ।
समाज के धारण--पोषण एवं सुख-समृद्धि के लिये आवश्यक हों ऐसी अनेक प्रवृत्तियाँ समाज की व्यक्तियों को करनी पड़ती है और इरादा न होने पर भी ऐसी प्रवृत्तियों में जीवहिंसा (द्रव्यहिंसा) हो ही जाती है, ऐसी स्थिति में सामाजिक सौख्य के लिये ऐसी प्रवृत्तियाँ चलानी पड़े तो वे कैसे चलाई जायँ ? इसका स्पष्टीकरण धर्मशास्त्रानुसार इस प्रकार किया जा सकता है कि जिसका निवारण हो सकता हो ऐसी जीवहिंसा न होने पाए—इस बात की योग्य सावधानता रखकर यदि प्रवृत्ति की जाय तो उसमें हिंसा हो जाने पर भी उस प्रकार की हिंसा पापरूप हिंसा नहीं कही जा सकती । परन्तु ऐसी प्रवृत्ति, जीवहिंसा के निवारण के लिये आवश्यक ऐसी उचित सावधानता के विना ही यदि की जाय तो असावधानता रखने के कारण वह हिंसादोष से दूषित होती है ।
योग्य सावधानता किसे कहना? यह बात तो उस व्यक्ति के स्थितिसंयोगों पर आधार रखती है । यह तो स्पष्ट ही है कि एक सन्तपुरुष अपने आश्रम अथवा निवासस्थान में रह कर जितनी सावधानता रख सकता है उतनी सावधानता एक किसान खेती करते समय नहीं रख सकता । यह तो सब मानते हैं कि खेती करते समय अनेक छोटे बड़े जीवजन्तुओं की हिंसा हो जाती है फिर भी खेती के उत्पन्न के अभाव में होनेवाली अतिविपुल एवं अतिदारुण हिंसा की घोर आपत्ति को रोकने के लिये खेती अवश्यकर्तव्य
१. भगवान् महावीर के 'आनन्द' आदि बारह व्रतधारी श्रावकों ने परिग्रहपरिमाण व्रत में पाँच
सौ हल और पाँच सौ छकडे देशान्तर के लिये तथा पाँच सौ छकडे खेत वगैरह से धर, कोठार आदि स्थानों पर घास, धान्य, लकडी आदि लाने के लिये छूटे रखे थे; तथा दस हजार गायों का एक व्रज, ऐसे व्रज किसी श्रावक ने चार, किसी ने छह तो किसी ने आठ रखे थे। इसके बारे में विशेष जानने के लिये देखो 'उवासगदसा' सूत्र।
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