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जैनदर्शन
बन जाती है । ऐसे कार्य में होनेवाली हिंसा अल्प होने के कारण क्षन्तव्य है । इसमें हिंसा होने पर भी उसके साथ यदि लोकोपकार की भावना भी हो तो वह पुण्य एवं प्रशस्त कार्यरूप बन जाती है । (हिंसा की तरतमता की बात जानने के लिये देखे : तृतीय खण्ड का चतुर्थ लेख 1)
यद्यपि स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवों की हिंसा का वर्जन शक्य न होने से इस व्रत में उसका समावेश नहीं किया गया है फिर भी इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ तक हो सके वहाँ तक उनकी व्यर्थ हिंसा न हो । इसके अतिरिक्त अपराधी के बारे में भी विचारदृष्टि रखने की है। साँप, बिच्छू आदि के काटने से उन्हें अपराधी समझकर मार डालना अनुचित है । हृदय में दयाभाव पूरेपूरा होना चाहिए और सर्वत्र विवेक-बुद्धि से लाभालाभ का विचार करके उचित प्रवृत्ति करनी चाहिए । हमें यह सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि प्राणीमात्र के प्रति सद्भाव रखना मानवता का मुख्य तत्त्व है और यही अहिंसा का हार्द है ।
२. स्थूल मृषावादविरमण :
सूक्ष्म असत्य भी नहीं बोलने की प्रतिज्ञा का पालन न कर सकनेवाले गृहस्थ के लिये स्थूल असत्यों का त्याग करना यह दूसरा अणुव्रत है । वर-कन्यादि मनुष्य के सम्बन्ध में, गाय-भैंस - घोड़ा - बैल आदि पशुओं के सम्बन्ध में, घर-मकान-खेत-बाग-बगीचे आदि भूमि के सम्बन्ध में असत्य नहीं बोलने का, दूसरे की धरोहर गबन नहीं करने का, झूठी गवाही नहीं देने का तथा झूठे दस्तावेज आदि लेख नहीं लिखने का यह व्रत है । धन्धेरोजगार में दगाबाजी करनेवाला तथा प्रलोभनवश झूठी गप्पें फैलानेवाला अपने व्रत अथवा धार्मिक क्रियाकाण्ड को दूषित करता है । ऐसा करनेवाला स्वयं तो जनता की दृष्टि में तिरस्कृत होता ही है, साथ ही वह धर्म की तथा अपने धार्मिक क्रिया-काण्ड की भी हँसी करता है— यह बात इस व्रत के व्रती
१. कन्यागो भूम्यलीकानि न्यासापहरण तथा । कूटसाक्ष्यं च पञ्चेति स्थूलासत्यान्यकीर्तयत् ॥
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- आ. हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-५४.
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