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जैनदर्शन
रखते हैं । धर्मभावना को सतेज रखने के लिये सत्संग के श्रेयस्कर मार्ग का आलम्बन लेकर आत्मभान के बल पर निर्भयता गुण का सम्पादन करना और समुचित संयम के पालन में जाग्रत रहना गृहस्थ के लिये नितान्त आवश्यक है ।
गृहस्थधर्म :
जैनशास्त्रों में गृहस्थधर्म का दूसरा नाम 'श्रावकधर्म' कहा है । गृहस्थधर्म का पालन करनेवाला पुरुष' श्रावक' शब्द और स्त्री श्राविका ' कहलाती है । 'श्रावक' शब्द श्रवण अर्थवाले 'श्रु' धातु पर से बना है। श्रवण करे अर्थात् आत्मकल्याण के मार्ग को रसपूर्वक सुने वह 'श्रावक' अथवा 'श्राविका' । श्रावक के अर्थ 'उपासक' शब्द भी प्रयुक्त होता है । गृहस्थधर्म में बारह व्रतों का निरूपण किया गया है । वे बारह व्रत इस प्रकार हैं : १ स्थूल प्राणातिपात विरमण, २. स्थूल मृषावादविरमण, ३. स्थूल अदत्तादान विरमण, ४. स्थूल मैथुनविरमण, ५. परिग्रहपरिमाण, ६. दिग्वत, ७. भोगोपभोगपरिमाण, ८. अनर्थदण्डविरति, ९. सामायिक, १०. देशावकाशिक, ११. पौषध, और १२. अतिथिसंविभाग । इनमें प्रारम्भ के पाँच मर्यादित होने के कारण 'अणुव्रत' कहलाते हैं । मर्यादितता सूचित करने के लिये उनके साथ 'स्थूल' शब्द लगाया गया है ।
१. स्थूल प्राणातिपातविरमण :
प्राणातिपात का अर्थ है प्राणों का अतिपात अर्थात् प्राणी के प्राण लेना । इससे विरत होने का नाम है प्राणातिपातविरमण । प्राणातिपात अथवा हिंसा स्वयं करने से, दूसरे से कराने से और उसका अनुमोदन करने से (इस प्रकार करना, कराना और अनुमोदन - इन तीन प्रकारों से) होती है । इसी प्रकार मृषावाद आदि भी इन तीन प्रकारों से होते है । दूसरे के आरम्भ समारम्भ से बनी हुई वस्तु के भोगोपभोग में भी उस आरम्भ समारम्भ का अनुमोदन रहा ही है भोगोपभोग आरम्भ - समारम्भ का प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूप से थोड़ा या बहुत अवश्य उत्तेजक होता है । अतः भोगोपभोग करनेवाले को आरम्भजन्य दोष तो लगता ही है । पुण्य अथवा पाप कार्य करने वाला मनुष्य स्वयं तो उसके
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