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द्वितीय खण्ड
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सामान्यतः चारित्र के दो विभाग किये गये हैं-साधुओं का चारित्र और गृहस्थों का चारित्र । साधुओं के चारित्र को 'साधुधर्म और गृहस्थों के चारित्र को 'गृहस्थधर्म' कहते हैं । इन दोनों प्रकार के धर्मों के बारे में जैनशास्त्रों में काफी अच्छा विवेचन किया गया है । साधु-धर्म :
“सानोति स्वपरहितकार्याणीति साधुः" अर्थात् स्वहित और परहित के कार्य जो साधे वह साधु । संसार के कंचनकामिनी आदि सब प्रकार के भोगोपभोगों का त्याग कर, गृह-कुटुम्ब-परिवार के दुनियाई सम्बन्ध से सर्वथा विमुक्त होकर आत्मकल्याण की उच्च भूमि पर आरूढ़ होने की परम पवित्र आकांक्षा से जो असंगव्रत ग्रहण किया जाता है वह साधुधर्म है । राग-- द्वेष की वृत्तियों को दबाना-उन्हें जीतना ही साधु के धर्मव्यापार का मुख्य विषय है । प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण', मैथुनविरमण और परिग्रहविरमण ये साधुओं के पाँच महाव्रत हैं । इन पाँच महाव्रतों का पालन ही साधु-जीवन की साधना है । मनोगुप्त', वचनगुप्तरे, और कायगुप्त होना साधु जीवन का प्रधान लक्षण है । साधुधर्म विश्वबन्धुत्व का व्रत है । जिसका फल जन्म-जरा-मृत्यु, आधि-व्याधि-उपाधि आदि सब दुःखों से रहित और परमानन्दस्वरूप मोक्ष हो वह साधुधर्म कितना उज्ज्वल, कितना विकट होना चाहिए, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है। जब संसार की विचित्रता (भवचक्र की निस्सारता) का यथार्थ भान हुआ हो, उस पर से तात्त्विक वैराग्य उत्पन्न हुआ हो और मोक्ष प्राप्त करने की प्रबल उत्कण्ठा जागरित हुई हो ऐसा मुनिधर्म, तभी प्राप्त हो सकता है-तभी उसका पालन किया जा सकता है ।
जो साधुधर्म के अधिकारी नहीं हैं वे गृहस्थधर्म का पालन करने से अपना जीवन कृतार्थ कर सकते हैं । धनोपार्जन में प्रामाणिकता तथा व्यवहार में नीति एवं सच्चाई गृहस्थधर्म के योग्य होने में प्राथमिक आवश्यकता
१. नहीं दी हुई वस्तु न लेना । २-३-४. मन, वचन
रखनेवाला ।
और शरीर को सुयोग्य संयम में
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