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जैनदर्शन
कहा है । गन्तव्य स्थल के मार्ग की जानकारी हो अथवा अमुक औषध की रोगघ्नता का निश्चय हो, परन्तु यदि उस मार्ग पर न चलें अथवा उस औषध का सेवन न करें तो इष्ट सिद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ? ज्ञान एवं श्रद्धा की नींव डाल करके ही यदि मनुष्य रुक जाय और चारित्र-मंदिर की रचना न करे (अर्थात् आचरण में न रखे) तो कल्याणमंदिर कैसे प्राप्त कर सकता है ?
सम्यग् ज्ञान :
__ आत्मतत्त्व को अथवा वास्तविक कल्याण साधन के मार्ग को पहचानना ही सम्यक् ज्ञान (Right Knowledge) है । आत्मा को जानने के लिए उसके साथ सम्बद्ध जड़ (कर्म) द्रव्यों के आवरणों को जानना भी आवश्यक है । इन्हें बराबर जाने बिना एक तो आत्मा की यथायोग्य स्थिति समझ में नहीं आ सकती और दूसरे आत्मकल्याण की साधना का मार्ग भी सरल नहीं बनता । वस्तुतः आत्मज्ञान, आत्मदृष्टि एवं आत्मभावना के बिना जगत् की सम्पूर्ण विद्वत्ता नि:सार और निरर्थक है । संसार के सब क्लेश मात्र आत्मा की अज्ञानता पर अवलम्बित हैं । इस अज्ञानता को दूर करने का साधन आत्मबोध के अभ्यास के अतिरिक्त दूसरा क्या हो सकता है ? आत्माभिमुख होना ही अखिल आध्यात्मिक वाङ्गमय का एकमात्र रहस्यभूत तात्पर्य है । सम्यक् चारित्र :
__ तत्त्वज्ञान (तत्त्वस्वरूप जानने) का फल पापकर्मों से दूर रहना है । यही सम्यक् (Right conduct) है । अपने जीवन को पाप के संयोग से दूर रख कर निर्मल बनाना और यथाशक्ति परहित साधनपरायण रहना यही 'सम्यक् चारित्र' शब्द का वास्तविक अर्थ है । इस विषय में शास्त्र में उल्लिखित सदुपदेश का अनुसरण उपयोगी होता है।
१. "आत्मा वा अरे ! द्रष्टव्यः, श्रोतव्यो, मन्तव्यो, निदिध्यासितव्यः । आत्मनो वा अरे ! दर्शनेन, श्रवणेन, मत्या, विज्ञानेन इदं सर्वं विदितं भवति ।"
-~-बृहदारण्यकोपनिषद्
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