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द्वितीय खण्ड
__३९ अविचारपूर्वक मिथ्या कह देना उचित नहीं । जिस मनुष्य ने लंदन, पेरिस, बर्लिन अथवा न्यूयोर्क जैसे शहर नहीं देखे वह, उन शहरों के वैभव का अनुभव करके आए हुए अन्य किसी निष्पक्ष सज्जन के मुख से उन शहरों के वैभव का वर्णन सुन कर उसे अपने से अप्रत्यक्ष होने के कारण, यदि असत्य मानने के लिए तैयार हो जाय तो वह जिस प्रकार अघटित है उसी प्रकार हम साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अनुभवज्ञान में आगे बढ़े हुए महापुरुषों के सिद्धान्तों की 'नहीं दिखते' या 'नहीं जान पड़ते' - इसी एक मात्र हेतु से अवगणना करना अथवा उन्हें झूठा कह देना यह भी अयुक्त है । इस पर से यही फलित होता है कि पुण्यपाप की प्रत्यक्ष दृश्यमान लीलाओं को ध्यान में लेकर, जगत् की विचित्रता और मोहवासना की विषमता को समझ कर, काम-क्रोधादि विकार दोषों को दूर करने के लिए मनुष्य को प्रयत्नशील होना चाहिए; आत्मकल्याण का श्रेष्ठ आदर्श लक्ष में रख कर जीवनशोधन के सच्चे पथ पर अपना प्रवास सदा व्यवस्थित रूप से चालू रखना चाहिए । चाहे धीरे-धीरे ही सही परन्तु मार्ग पर सच्चे मार्ग पर चलनेवाला प्राणी दुःखी नहीं होता, क्रमशः आगे बढ़ता जाता है और अन्त में अपने साध्य तक पहुँच जाता है । मोक्ष अर्थात् आत्मा का पूर्णविकासरूप साध्य प्रत्येक साधु अथवा गृहस्थ को अपनी दृष्टिसम्मुख रखना चाहिए और इस साध्य को सिद्ध करने वाला मार्ग भी जानना चाहिए । दुराग्रह का त्याग करके और गुणानुरागी बन कर शास्त्रों का मर्म ढूँढना चाहिए । शुद्ध जिज्ञासाबुद्धि और आत्मकल्याण की सच्ची उत्कंठा से यदि शास्त्रों का अवलोकन किया जाय तो उनमें से मोक्ष प्राप्त करने का निष्कलंक, मार्ग जाना जा सकता है। जानने के पश्चात् आचरण में रखने की आवश्यकता है । क्रियाशून्य ज्ञान अर्थात् जो ज्ञान आचरण में नहीं रखा जाता वह फलदायक नहीं हो सकता, यह बात प्रत्येक व्यक्ति समझ सकता है । पानी में तैरने की क्रिया जानने पर भी यदि वह क्रिया करने में न आए-हाथ पैर पटके न जायँ तो पानी में तैरा नहीं जा सकता । ठीक उसी प्रकार भवसागर से पार होने का उपाय जानने पर भी यदि उस उपाय को आचरण में न रखें तो भवसागर कैसे पार किया जा सकता है ? इसीलिये शास्त्रकारों ने 'सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' इस सूत्र से सम्यग्ज्ञान और सम्यक् क्रिया (आचरण) दोनों के सहयोग से ही मोक्ष की साधना शक्य है-ऐसा
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