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________________ ३६ जैनदर्शन दुर्गति देनेवाली मानना यह उचित नहीं: क्योंकि एक तो वेश्या को दुर्गति का ख्याल ही नहीं है और इसके अतिरिक्त कोई किसी को दुर्गति में ले जाने के लिए समर्थ भी नहीं है । तब दुर्गति में ले जानेवाली वस्तु मन की मलिनता के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं यह बात निःसंकोच गले से नीचे उतरे ऐसी है । इस पर से यह सिद्धान्त स्थिर हो सकता है कि सुख - दुःख के कारणभूत कर्म का आधार मन की वृत्तियाँ हैं और उन वृत्तियों को शुभ बनाने का, उसके द्वारा आत्मविकास साधने का तथा सुख-शान्ति प्राप्त करने का प्रशस्त साधन भगवद्-उपासना है । भगवद्-उपासना से वृत्तियाँ शुभ होती हैं, आगे बढ़कर शुद्ध होती हैं । इस प्रकार वह (भगवद्-उपासना) कल्याणसाधन का मार्ग बनती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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