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प्रथम खण्ड
आलम्बन लेने से, उसका ध्यान करने से आत्मा में वीतरागभाव का संचार होता है । सब कोई समझ सकते हैं कि एक रूपवती रमणी के संसर्ग से एक विलक्षण प्रकार का भाव उत्पन्न होता है, पुत्र को देखने से अथवा मित्र को मिलने से स्नेह जागृति होती है और एक प्रसन्नात्मा मुनि के दर्शन से हृदय में शान्तिपूर्ण आह्लाद का अनुभव होता है । सज्जन की संगति सुसंस्कार और दुर्जन की संगति कुसंस्कार का वातावरण पैदा करती है । इसीलिए कहा जाता है कि 'जैसी संगत वैसी रंगत' । तब वीतरागदेव आत्मा की सत्संग कितना कल्याणकारक सिद्ध हो सकता है इसकी तो कल्पना ही करनी रही । वीतरागदेव की संगत उसका भजन, स्तवन या स्मरण करना है । इससे (इसके सबल अभ्यास के परिणामस्वरूप) आत्मा में ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है कि रागद्वेष की वृत्तियाँ शान्त होने लगती है । यह ईश्वरपूजन का मुख्य और तात्त्विक फल है ।।
पूज्य परमात्मा पूजक की ओर से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता ! पूज्य परमात्मा का पूजक की ओर से कुछ भी उपकार नहीं होता । पूज्य परमात्मा को पूजक के पास से कुछ भी नहीं चाहिए । पूजक सिर्फ अपने आत्मा के उपकार के लिये पूज्य परमात्मा की पूजा करता है और उसके (परमात्मा के) आलम्बन से-उसके तरफ की एकाग्र भावना के बल से वह स्वयं अपना फल प्राप्त कर सकता है ।
अग्नि के पास जानेवाले मनुष्य की सर्दी अग्नि के सान्निध्य से जिस प्रकार स्वतः उड़ जाती है, अग्नि किसी को वह फल लेने के लिये अपने पास नहीं बुलाती और प्रसन्न होकर किसी को भी वह फल देती भी नहीं, इसी प्रकार वीतराग परमेश्वर के प्रणिधान से रागादिदोषरूप सर्दी स्वतः भागने लगती है और आत्मविकास का फल मिलता जाता है। परमात्मा के सद्गुणों के स्मरण से भावना विकसित होती जाती है, चित्त का शोधन होने लगता है और आत्मविकास बढ़ता जाता है । इस प्रकार परमात्मा की उपासना का यह फल उपासक स्वयं अपने आध्यात्मिक प्रयत्न से ही प्राप्त करता है ।
यह सही है कि वेश्या का संग करनेवाले मनुष्य की दुर्गति होती है, परन्तु यह दुर्गति देनेवाला कौन ? ---यह विचारने जैसा है । वेश्या को
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