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________________ चतुर्थ खण्ड ३०५ से किसी भी प्रकार की रोकथाम के बिना निरंकुशरूप से अपना दुष्कृत्य जारी रख सकते हैं और जिस समाज के समझदार और अग्रणी माने जानेवाले लोग नैतिक हिम्मत दिखला कर समाज अथवा राज्य के सामने उनका भण्डाफोड करने के बदले अथवा उनकी रोकथाम का प्रयत्न करने के बदले नीचा मुँह करके उन्हें निभा लेते हैं और इस तरह परोक्षरूप से उनका अनुमोदन —— जैसा करते हैं उस समाज को अपने वैसे दोषों के कारण दुःख सहन करना पड़े यह स्पष्ट है । सामुदायिक कर्म व्यक्तियों के कर्मों में से उत्पन्न होते हैं, अतः समग्र सुधारों की कुंजी व्यक्ति की सुधारणा में रही हुई हैं । इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को कर्म के नियमबल का विचार करके मनसा, वचसा, कर्मणा अच्छे होने के लिये और अच्छा कार्य करने के लिये प्रयत्नशील होने की आवश्यकता है । इसी में व्यक्ति की और समुदाय की, समाज की और देश की समृद्धि और सुख-शान्ति रही हुई है । मनुष्यों में यदि नैतिकता और बन्धुभाव हो तो व्यक्ति, समाज तथा देश अनेकविध तकलीफों से बच जाएँ और उनकी जीवनयात्रा सुखी तथा विकासगामी बने । उद्यम से उदय में आए कर्मों में भी परिवर्तन अथवा शैथिल्य लाया जा सकता है । यह बात अन्धे, अपाहिज-लंगडे, मूकबधिर के लिये शालाएँ स्थापित करके उन्हें जो स्वाश्रयी बनाया जाता है उस पर से देखी जा सकती है । इस प्रकार अनेक देशों ने महान् पुरुषार्थ कर के अपनी प्रजा के कठिन प्रारब्ध की कठोरता को कम किया है । व्यक्ति भी सच्चा और उत्तरदायित्वपूर्ण जीवन जी करके अपने 'प्रारब्ध' को सुधार सकता है । वैयक्तिक विकास और समूहगत सार्वजनिक विकास भी 'प्रारब्ध' कर्म को शिथिल कर सकता है, उसकी कठोरता को कम कर सकता है और उस कर्म के पार होकर आगे बढ सकता है । 'Fate is the friend of the good, the guide of the wise, the tyrant of the foolish, the enemy of the bad .' W.R. Alger Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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