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________________ ३०६ जैनदर्शन यह सूक्ति कहती है कि नसीब सज्जनों का मित्र है, विवेकबुद्धिवालों का मार्गदर्शक है, मूल् का अत्याचारी स्वामी है और दुर्जनों का दुश्मन है । [१४] -परलोक की विशिष्ट विवेचनासामान्यतः 'परलोक' शब्द से 'मृत्यु के बाद प्राप्त होनेवाली गति' ऐसा अर्थ समझा जाता है, और उसे सुधारने के लिये हमें कहा जाता है । परन्तु जिस गति में हमें भविष्य में जन्म लेने का है उस गति का समाज यदि सुधरा हुआ न हो तो उस समाज में भविष्य में जन्म लेकर, हम चाहे जैसे हों फिर भी सुखी नहीं हो सकते । देवगति और नरकगति के लोगों के साथ हम तनिक भी सम्पर्क इस जन्म में स्थापित नहीं कर सकते । अतः यदि हम कुछ सुधार का कार्य करना चाहें तो मनुष्यसमाज तथा पशुसमाज के बीच रहकर उनके बारे में ही कर सकते हैं । इस सुधारणा का लाभ हमें इस जन्म में तो मिलेगा ही, परन्तु साथ ही भविष्य के जन्म के समय (मनुष्य अथवा पशुलोक में पुनर्जन्म होने पर ) भी मिल सकता है । अतः जहाँ तक हमारा अपना सम्बन्ध है वहाँ तक 'परलोक' शब्द का ऐसा विशिष्ट अर्थ भी करना चाहिए जिससे मनुष्यसमाज तथा पशुसमाज के साथ के हमारे कर्तव्यों का हमें भान हो और वैसे कर्तव्यों का पालन करके हम इस लोक के साथ-साथ हमारे परलोक (मृत्यु के बाद के जीवन) को भी सुधार सकें । इस दृष्टि को सम्मुख रखकर नीचे की विचारणा प्रस्तुत की जाती है । परलोक अर्थात् दूसरे लोग-हमारे-खुद के सिवाय दूसरे लोग । परलोक का सुधार अर्थात् दूसरे लोगों का सुधार । हमारे अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख परिचित और नित्य सम्पर्क में आनेवाले दो लोक तो स्पष्ट हैं : मनुष्यसमाज और पशुसमाज । इन दो समाजों को सुधारने के प्रयत्न को परलोक की सुधारणा का प्रयत्न कह सकते हैं । प्रत्येक मनुष्य यदि दृढ़रूप से ऐसा समझने लगे कि हमारा दृश्यमान परलोक यह मनुष्यसमाज और पशुसमाज है और परलोक की सुधारणा का अर्थ इस मानवसमाज और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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