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चतुर्थ खण्ड पशुसमाज को सुधारने का होता है, तो मानवसमाज का चित्र ही बदल जाय और पशुसमाज की ओर भी सद्भावना जाग्रत हो उठे जिससे उनके लिये खाने-पीने, रहने आदि का सुयोग्य प्रबन्ध किया जा सके । मानवसमाज के सुखसाधन में पशुसमाज का हिस्सा क्या कम है ? अमेरिका आदि देशों की गोशालाएँ कितनी स्वच्छ और व्यवस्थित होती है !
‘मनुष्य मरकर कहाँ जन्म लेगा वह निश्चित नहीं है । अतः उसे वह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यदि मानवसमाज और पशुसमाज नानाविध बुराईयों और बीमारियों के कारण दुर्गतिरूप होगा तो मरकर उसमें जन्म लेनेवाला वह (मनुष्य)भी दुर्गति में पड़ेगा । इसलिये लोकहित और स्वहित दोनों दृष्टिओं से अपना आचरण और व्यवहार इतने अच्छे रखने की आवश्यकता उपस्थित होती है जिससे कि इन दोनों का समाज के ऊपर बुरा प्रभाव पड़ने के बदले अच्छा प्रभाव पड़ता रहे । नगरपालिका (Municipality) जिस प्रकार नगर के सब नागरिकों के लिये सुख की वस्तु बनती है उसी प्रकार हमारे मनुष्य तथा पशु संसाररूपी नगर की म्युनिसिपलिटी उस नगर के सब नागरिकों के सुख की वस्तु बन सकती है । अतः इन दोनों वर्गों को सुधारने के लिये यदि प्रयत्न किया जायतत्परता रखी जाय तो वह वस्तुतः हमारे अपने परलोक को सुधारने का प्रयत्न होगा ।
दूसरा एक परलोक है मनुष्यों की प्रजा-सन्तति । मानव-शरीर द्वारा होनेवाले सत्कर्म अथवा दुष्कर्म के जीवित संस्कार रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तति में आते हैं । मनुष्य में यदि कोढ़, क्षय, प्रमेह, केन्सर जैसे संक्रामक रोग हों तो उसका फल उसकी सन्तति को भुगतना पड़ता है । मनुष्य के अनाचार, शराबखोरी आदि दुर्व्यसनों के कारण होनेवाले पापसंस्कार रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तति में आएंगे और वे मानवजाति की घोर दुर्दशा करेंगे । अतः परलोक को सुधारने का अर्थ है संतति को सुधारना, और सन्तति को सुधारने का अर्थ है अपने आपको सुधारना ।
जिस प्रकार मनुष्य का पुनर्जन्म रक्तवीर्य द्वारा उसकी सन्तति में होता है उसी प्रकार विचारों द्वारा मनुष्य का पुनर्जन्म उसके शिष्यों में तथा आसपास
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