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जैनदर्शन
के मनुष्यों में होता है। हमारे जैसे आचार-विचार होंगे उनका वैसा ही प्रभाव शिष्यों तथा निकटवर्ती लोगों पर पड़ेगा । मनुष्य एक ऐसा सामाजिक प्राणी है कि जान में अथवा अनजान में उसका प्रभाव दूसरों पर और दूसरों का प्रभाव उस पर पड़ने का ही । मनुष्य के ऊपर अपने आपको सुधारने का अथवा बिगाडने का उत्तरदायित्व तो है ही, परन्तु साथ ही साथ मानवसमाज के उत्थान अथवा पतन में भी उसका हिस्सा साक्षात् अथवा परम्परया ही है । रक्तवीर्यजन्य सन्तति अपने पुरुषार्थ द्वारा पितृजन्य कुसंस्कारों से शायद मुक्त हो सके, परन्तु यदि विचारसन्तति में विष का संचार हो तो उसे पुनः स्वस्थ करना प्रायः दुष्कर ही हो जाता है । आज के प्रत्येक व्यक्ति की नजर इस नई पीढ़ी पर लगी हुई है । कोई इसे मजहब की शराब पिला रहा है तो कोई हिन्दुत्व की, कोई जाति की तो कोई कुल-परम्परा की । न मालूम कित-कितने प्रकार की विचार-धाराओं की चित्र-विचित्र शराब मनुष्यों की दुर्बुद्धि ने तैयार की है ? और अपने वर्ग की उच्चता, अपने अधिकार के स्थायित्व तथा स्थिर स्वार्थों की रक्षा के लिये धार्मिक, सांस्कृतिक सामाजिक और राष्ट्रीय आदि अनेकविध सुन्दर व मोहक पात्रों में भर-भर कर भोलाभाली नूतन पीढी को पिला कर उसे स्वरूपच्युत किया जाता है । वे इसके नसे में चूर होकर और मनुष्य की समानता के अधिकार को भूलकर अपने भाईयों के साथ क्रूर एवं नृशंसतापूर्ण व्यवहार करने में झिझकते नहीं हैं । आज के ऐसे विचित्र और कलुषित युग में जहाँ मनुष्य की यह दशा है वहाँ पशुरक्षा तथा पशुसुधार ही बात क्या करना ?
जीवनशक्ति के वास्तविक तत्त्व का यथार्थ ज्ञान ही ऐसी उज्ज्वल ज्योत है जो इस सारे कालुष्य-अन्धकार को दूर कर पवित्र प्रकाश फैला सकती है । निःसन्देह, यह प्रकाश उसके धारक को सर्वमङ्गलरूप मार्ग पर चढा देता है ।
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