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पंचम खण्ड
न्यायपरिभाषा :
प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्-जिसके द्वारा वस्तु का यथार्थ बोध होता हो उसे 'प्रमाण' कहते हैं । सत्य ज्ञान होने पर सन्देह, भ्रम व मूढ़ता दूर होते हैं और वस्तु का स्वरूप यथार्थ रूप से ज्ञात होता है, अत: वह (ज्ञान) प्रमाण समझा जाता है । 'प्रमाण' के आधार पर वस्तु का यथार्थ ज्ञान होने पर यदि वह वस्तु इष्ट हो तो उसे प्राप्त करने के लिये, अनिष्ट हो तो उसे छोड़ने के लिये मनुष्य तत्पर बनता है ।
प्रमाण के दो भेद हैं: प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के दो भेद सांव्यवहारिक (लौकिक) और पारमार्थिक का विवेचन तृतीय खण्ड के १५वें लेख में आ गया है ।
इद्रियों से प्रत्यक्ष होने में वस्तु के साथ इन्द्रिय का संयोग होता है या नहीं इस विषय में जानने योग्य बात इस प्रकार है -
जीभ से रस चखा जाता है; यहाँ जीभ और रस का संयोग बराबर होता है। त्वचा से स्पर्श किया जाता है; यहाँ त्वचा और स्पृश्य वस्तु का संयोग स्पष्ट है । नाक से गन्ध ग्रहण की जाती है; यहाँ गन्धयुक्त द्रव्य का नाक के साथ अवश्य सम्बन्ध होता है । दूर से गन्ध आने में भी दूर से आनेवाले गन्धयुक्त सूक्ष्म द्रव्य नाक साथ अवश्य संयुक्त होते हैं । और दूर से अथवा समीप से आनेवाले शब्द जब कान के साथ टकराते हैं तभी कान से सुना जाता है । जैनों के मन्तव्य के अनुसार शब्द भाषा-वर्गणा के पुद्गलस्कन्ध है, अर्थात् शब्द द्रव्य है ।
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