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जैनदर्शन
इस प्रकार जीभ, त्वचा, नाक और कान — ये चार इन्द्रियाँ वस्तु के साथ संयुक्त होकर अपने विषय को ग्रहण करती हैं । परन्तु चक्षु से दिखनेवाली समीपस्थ अथवा दूरस्थ वस्तु चक्षु के पास नहीं आती यह स्पष्ट है, वह तो अपने स्थान पर ही रहती है, अतः चक्षुइन्द्रिय के साथ संयुक्त हुए बिना ही उस वस्तु का प्रत्यक्ष होता है । इसीलिये जैन न्यायशास्त्र में उसे (चक्षु को) 'अप्राप्यकारी' कहा है । 'अप्राप्य' अर्थात् प्राप्ति ( संयोग ) किए बिना ही 'कारी' अर्थात् विषय को ग्रहण करनेवाली । अवशिष्ट चार इन्द्रियाँ 'प्राप्यकारी' कहलाती है । मन भी चक्षु की भाँति 'अप्राप्यकारी' है । परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद किए गए हैं : स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ।
स्मरण और प्रत्यभिज्ञान :
अनुभूत वस्तु की याद आने को 'स्मरण' कहते हैं । गुम हुई वस्तु जब हाथ में आती है तब 'यह वही है' इस प्रकार का जो ज्ञान होता है वह 'प्रत्यभिज्ञान' है । पहले देखा हुआ मनुष्य जब पुनः मिलता है तब 'यह वही चन्द्रकान्त है' ऐसा जो प्रतिभान होता है वह प्रत्यभिज्ञान है ।
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स्मरण होने में पहले अनुभव ही कारण है, जबकि प्रत्यभिज्ञान होने में अनुभव और स्मरण दोनों अपेक्षित हैं । स्मरण में 'वह घड़ी' ऐसी स्फुरणा होती है, जबकि प्रत्यभिज्ञान में 'यह वही घड़ी' ऐसा प्रतिभास होता है । इस पर से इन दोनों की भिन्नता समझी जा सकती है । गुम हुई वस्तु को देखने से अथवा पहले देखे हुए मनुष्य को पुनः देखने से 'यह वही' ऐसा जो प्रत्यभिज्ञान होता है उसमें 'वही' भाग स्मरणरूप है और 'यह' भाग उपस्थित वस्तु अथवा मनुष्य का दर्शनरूप अनुभव है । इस तरह अनुभव और स्मरण इन दोनों के सहयोग से उत्पन्न 'यह वही' इस प्रकार का संकलित ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है ।
१. वस्तु पर पड़नेवाले प्रकाश की किरणें जब आँख पर गिरती हैं तब वस्तु का दर्शन होता है, ऐसा वैज्ञानिक मन्तव्य है । तो भी यह तो स्पष्ट है कि चक्षु - इन्द्रिय वस्तु का परस्पर साक्षात् संयोग नहीं होता ।
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