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________________ पंचम खण्ड ३११ इस प्रकार के प्रत्यभिज्ञान को एकत्व - प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । 'रोज़ गाय के जैसा होता है' ऐसा जानने के बाद रोज़ को देखने पर 'रोज़ गाय के जैसा होता है' ऐसा जाना हुआ याद आने पर 'गाय के जैसा रोज़ है ' इस प्रकार इन दोनों का (गाय और रोज़ का ) जो सादृश्य प्रतीत होता है वह सादृश्य-प्रत्यभिज्ञान है । इसी प्रकार 'गाय से भैंस विलक्षण है' इस तरह इन दोनों का (गाय और भैंस का ) जो वैलक्षण्य-वैसदृश्य प्रतीत होता है वह वैसदृश्य - प्रत्यभिज्ञान है । इसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रत्यभिज्ञान के दूसरे उदाहरण भी दिए जा सकते हैं । तर्क और अनुमान : अनुमान में व्याप्तिज्ञान की आवश्यकता है ।' व्याप्ति' अर्थात् अविनाभावसम्बन्ध अथवा नियत - साहचर्य । जिसके बिना जो न रहता हो उसके साथ का उसका उस प्रकार का सम्बन्ध अविनाभाव सम्बन्ध है । अग्नि के बिना धूम नहीं रहता, इस प्रकार का अग्नि के साथ धूम का सम्बन्ध है । अतः यह सम्बन्ध अविनाभाव सम्बन्ध है। धूम का अग्नि के साथ का । यह अविनाभाव - सम्बन्धरूप 'व्याप्ति' धूम में होने से धूम व्याप्य (अग्नि का व्याप्य) कहलाता है, क्योंकि अग्नि द्वारा धूम व्याप्त है, और अग्नि धूम को व्याप्त करके रहती है अतः वह व्यापक (धूम का व्यापक) कहलाती है । इस प्रकार व्यापक के साथ का व्याप्य का सम्बन्ध अर्थात् व्यापक की ओर से व्याप्य में जो व्याप्तता होती है उसे व्यापित कहते हैं । व्याप्य से व्यापक की सिद्धि ( अनुमान) होने से व्यापक को 'साध्य' कहते हैं और यह सिद्धि (अनुमान) व्याप्य द्वारा होती है अतः उसे ( व्याप्य को) . 'साधन' अथवा 'हेतु' कहते हैं । व्याप्ति का निर्णय करने में अन्वय- व्यतिरेक की योजना उपयोगी है । 'अन्वय' अर्थात् साध्य के होने पर ही साधन का होना (अर्थात् साधन के होने पर साध्य का अवश्य होना) और 'व्यतिरेक' अर्थात् १. अविनाभाव शब्द का पदच्छेद इस प्रकार है : अ + विना + भाव अर्थात् 'बिना' यानी साध्य के बिना और 'अ' तथा 'भाव' यानी अभाव अर्थात् न होना— साधन का । मतलब कि साध्य के बिना साधन का न होना । इस तरह अबिनाभाव सम्बन्ध साधन का अथवा हेतु का एक मात्र असाधारण लक्षण बनता है । Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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