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जैनदर्शन
कम करने में करता है वह भविष्य में सेवाभावी धनाढ्य होता है । अप्रामाणिक रूप से व्यवहार करनेवाला, छलप्रपंच से, विश्वासघात से, दूसरे को कलेजा चीरकर पैसा इकट्ठा करनेवाला मनुष्य भविष्य के लिये विनाश को आमंत्रित करता है । अपने ही लिये जीनेवाले मनुष्य को भविष्य में सब कोई त्याग करते हैं । सारांश यह है कि मिले हुए साधन और परिस्थिति का दुरुपयोग न हो और उसका सदुपयोग ही हो ऐसी सावधानी प्रत्येक मनुष्य को सर्वदा रखनी चाहिए - स्वपर के हित के लिये, इहलोक - परलोक के सुख के लिये ।
जिस प्रकार वैयक्तिक कर्मों में से कुटुम्ब - कुटुम्ब के बीच के अच्छाबुरे कौटुम्बिक कर्म का प्रारम्भ होता है, उसी प्रकार जब एक गाँव अपने आसपास के गाँवों के लिये दुःखरुप होता है, आसपास के गाँवों की खेती को नुकसान पहुँचाता है, उनके पशुओं की चोरी करता है और दूसरे गाँवों के खर्च पर अपना स्वार्थ साधता है तब वह गाँव दूसरे गाँवों के साथ का खराब कर्म बाँधता है । इसी प्रकार एक देश में बसनेवाली विभिन्न जातियों, सम्प्रदायों तथा वर्गों आदि के अच्छे-बुरे रीतरिवाज, अच्छी-बुरी मान्यताएँ, अच्छे-बुरे धन्धे तथा स्वार्थी अथवा परमार्थी जीवन से समग्र देश के कर्म का निर्माण होता है और उसकी पापमात्रा के आधिक्य के परिणामस्वरूप भूकम्प, अवृष्टि, अतिवृष्टि, अकाल तथा महामारी, विषूचिका जैसे रोग देश में बार-बार फलते हैं अथवा आन्तरिक संघर्ष पैदा होता है । इसी प्रकार एक देश दूसरे देश के साथ जब अच्छा या बुरा सम्बन्ध रखता है तब उसके परिणामस्वरूप वह अच्छा या बुरा कर्मसम्बन्ध बाँधता है । इसे अन्तर्राष्ट्रीय कर्मबन्ध कहते हैं, और इस कर्मबन्ध के अनुसार फल भोगे जाते हैं ।
सामुदायिक दुष्कर्म के कटु फल समुदायव्यापी बनते हैं । ऐसे समय में भी जो विशिष्ट पुण्यशाली होता है वह बाल-बाल बच जाता है ।
किसी भी समाज में सभी मनुष्य अन्यायी, विश्वासघाती अथवा अत्याचारी नहीं होते, फिर भी जो थोडे बहुत होते हैं उनके किये हुए दुष्कृत्यों के परिणामस्वरूप कभी-कभी सारे समाज को हैरान होना पड़ता है इसका क्या कारण है ? इसके बारे में विचार करने पर मालूम होता है कि जिस समाज में अन्यायी अथवा अत्याचारी मनुष्य, समाज अथवा राज्य की ओर
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