________________
चतुर्थ खण्ड
३०३
इस प्रकार प्रकृति हमें कहती है । परन्तु इन दोनों में से क्या बोना इसकी आज्ञा हमें प्रकृति नहीं करती । हमें जो पसन्द हो वह हम बो सकते हैं, क्योंकि चुनाव करने का स्वातन्त्र्य प्रकृति ने हमें पहले से दे रखा है । परन्तु बोने के बाद एक के बदले दूसरा मिले ऐसी आशा रखना व्यर्थ है, क्योंकि प्रकृति का नियम अटल है । गेहूँ बोए हों तो गेहूँ और काँटे बोए हों तो कांटे मिलेंगे । इसमें दूसरी बात ही नहीं हो सकती । इस तरह सत्कृत्य के सुख-शान्ति अभ्युदय, विकास जैसे अच्छे फल मिलते हैं और दुष्कृत्य के अशान्ति, दुखः, अवनति, पराभव, शोक - सन्ताप जैसे खराब फल मिलते हैं । कर्म का यह अचल नियम है । पोषक, हानिकर, अथवा प्राणहारक जैसा आहार लें उसका वैसा प्रभाव लेनेवाले पर पड़ेगा ही । इसी प्रकार जिस तरह का आचरण हम करेंगे उस तरह का सूक्ष्म प्रभाव अवश्य हम पर पड़ेगा ।
1
जो मनुष्य अपने बालकों की ओर लापरवाह रहता है वह भविष्य के लिये वन्ध्यत्व का कर्म बाँधता है । जो अपने को मिले हुए धन का बिना विचार किए दुरुपयोग करता है अथवा फिजुलखर्जी करता है वह भविष्य के लिये दरिद्रता को आमंत्रित करता है । जो स्त्री-पुरुष अपने पति अथवा पत्नी के प्रेम की अवगणना करते हैं वे भविष्य के लिये वैधव्य अथवा वैधुर्य के बीज बोते हैं । जो मनुष्य अपने उच्चाधिकार का दुरुपयोग करता है वह भविष्य के लिये किसी के दास होने की तैयारी करता है । जो मनुष्य अपने अवकाश का दुरुपयोग करता है वह भविष्य के लिये संकटाकीर्ण जीवन की सृष्टि करता है । जो अपने को मिली हुई परिस्थिति और साधनों का सदुपयोग करता है उसे भविष्य में अधिक अच्छी परिस्थिति तथा अधिक अच्छे साधन उपलब्ध होते हैं । जो अपने साधन और परिस्थिति के अनुसार यथाशक्य लोकसेवा करता है उसे भविष्य में अधिक अच्छे साधन और अधिक अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होती है । जो अपने को मिले हुए अधिकार का सदुपयोग करता है वह भविष्य में विशेष अधिक अधिकार प्राप्त करता है । जो ईर्ष्याभाव रखे बिना तथा स्वामित्व का अधिकार अथवा किसी भी प्रकार की शर्त रखे बिना दूसरे को चाहता है वह भविष्य में अनेक लोगों का प्रेमभाजन बनता है । जो अपने धन का उपयोग जनता की गरीबी
I
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org