________________
द्वितीय खण्ड
१२९
का प्रयोजन साधने का है । स्वास्थ्य के समीकरण में भी वह उपयोगी हो सकता है । एकाशन से भोजन का झंझट एक बार में ही निबट जाता है और तबियत हलकी होने के साथ ही कार्य-प्रवृत्ति के लिये अधिक अवकाश मिलता है ।
बाह्य - तप बाह्य होने कारण उस ओर लोगों का ध्यान जल्दी आकर्षित होता है, इसके पालन में विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं होती, यश एवं प्रशंसा भी शीघ्र मिलने लगते हैं, अतः इसका जल्दी प्रचार होता है । इसकी उपयोगिता तथा मर्यादा का भी ख्याल लोगों में नहीं रहता । बाह्य तप की विशेष उपयोगिता तो इसमें थी कि लोग अपने स्वास्थ्य को सम्भालें और अवसर आने पर कष्ट का सामना कर सकें इसलिये कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास करते रहें । परन्तु इन दोनों बातों का विचार नहीं किया जाता । ये दोनो बातें सधती भी नहीं । भगवान् महावीर की बाह्य तपश्चर्या लोगों के ध्यान पर आती है, परन्तु हमें यह समझना चाहिए कि बाह्य तप की अपेक्षा अन्तरङ्ग तप उस महर्षि में अधिक था— अत्यन्त अधिक था । उस ओर हमारा ध्यान सर्वप्रथम जाना चाहिए और हमारा लक्ष्य भी वही होना चाहिये ।
भगवान् महावीर की बाह्य तपश्चर्या, पूर्वभव में किए गए दुष्कृत्यों के परिणामस्वरूप उनके चित्त में पड़े हुए संस्कारदोषों (कर्म-दोषों ) को प्रायश्चित्त द्वारा पकड़-पकड़ कर उनका नाश करने के लिये थी । इसी प्रकार उस समय आहार के लिये तथा यज्ञों में जो अतिप्रचुर पशुहिंसा होती थी उसके विरुद्ध लोकहृदय में पुण्यप्रकोप जागरित कर हिंसा के स्थान पर अहिंसा की प्रतिष्ठा करके उसका प्रचार करने की जो प्रखर भावना उस परम कारुणिक पुरुष में रममाण थी उसे मूर्तरूप देने के लिये भी [ उनकी बाह्य तपश्चर्या ] थी । उस समय जो लड़ाइयाँ होती थीं उनमें पराजित राज्य के स्त्री-पुरुषों को कैद करके गुलामों की भाँति बेचने रखीदने की प्रथा थी, ऐसी प्रथा के विरुद्ध लोगों में घृणा उत्पन्न हो और ऐसी प्रथा को निर्मूल करने के लिये वे प्रवृत्त हों ऐसी-ऐसी लोकहितावह पुण्य भावनाएँ भी इस कल्याणमूर्ति पुरुष के तप के चारों ओर फैली हुई होना बहुत सम्भव है । इस सत्पुरुष के पूर्वभव के जीवनचरित के अवलोकन पर से ऐसी कल्पनाएँ स्फुरित होती हैं । संन्यस्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org